Thursday, February 28, 2019

Thoughts of famous Indian non-Muslim scholars about Islam इस्लाम के बारे में भारतीय ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों के विचार

इस्लाम के बारे में भारतीय ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों के विचार
In the Name of Allah the Most Gracious,
the Most MercifulThe following are some old and recent quotations from non-Muslim public figures from the eastern and western world, about Muhammad, may Allah bless him and grant him peace, the Messenger to entire humanity.

स्वामी विवेकानंद (विश्व-विख्यात धर्मविद्) ‘‘...
मुहम्मद (इन्सानी) बराबरी, इन्सानी भाईचारे और तमाम मुसलमानों के भाईचारे के पैग़म्बर थे। ...जैसे ही कोई व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करता है पूरा इस्लाम बिना किसी भेदभाव के उसका खुली बाहों से स्वागत करता है, जबकि कोई दूसरा धर्म ऐसा नहीं करता। ...हमारा अनुभव है कि यदि किसी धर्म के अनुयायियों ने इस (इन्सानी) बराबरी को दिन-प्रतिदिन के जीवन में व्यावहारिक स्तर पर बरता है तो वे इस्लाम और सिर्फ़ इस्लाम के अनुयायी हैं। ...मुहम्मद ने अपने जीवन-आचरण से यह बात सिद्ध कर दी कि मुसलमानों में भरपूर बराबरी और भाईचारा है। यहाँ वर्ण, नस्ल, रंग या लिंग (के भेद) का कोई प्रश्न ही नहीं। ...इसलिए हमारा पक्का विश्वास है कि व्यावहारिक इस्लाम की मदद लिए बिना वेदांती सिद्धांत—चाहे वे कितने ही उत्तम और अद्भुत हों—विशाल मानव-जाति के लिए मूल्यहीन (Valueless) हैं...।’’ —‘टीचिंग्स ऑफ विवेकानंद, पृष्ठ-214, 215, 217, 218) अद्वैत आश्रम, कोलकाता-2004

स्वामी विवेकानंद (विश्व-विख्यात धर्मविद्)
‘‘...मुहम्मद (इन्सानी) बराबरी, इन्सानी भाईचारे और तमाम मुसलमानों के भाईचारे के पैग़म्बर थे। ...जैसे ही कोई व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करता है पूरा इस्लाम बिना किसी भेदभाव के उसका खुली बाहों से स्वागत करता है, जबकि कोई दूसरा धर्म ऐसा नहीं करता। ...हमारा अनुभव है कि यदि किसी धर्म के अनुयायियों ने इस (इन्सानी) बराबरी को दिन-प्रतिदिन के जीवन में व्यावहारिक स्तर पर बरता है तो वे इस्लाम और सिर्फ़ इस्लाम के अनुयायी हैं। ...मुहम्मद ने अपने जीवन-आचरण से यह बात सिद्ध कर दी कि मुसलमानों में भरपूर बराबरी और भाईचारा है। यहाँ वर्ण, नस्ल, रंग या लिंग (के भेद) का कोई प्रश्न ही नहीं। ...इसलिए हमारा पक्का विश्वास है कि व्यावहारिक इस्लाम की मदद लिए बिना वेदांती सिद्धांत—चाहे वे कितने ही उत्तम और अद्भुत हों—विशाल मानव-जाति के लिए मूल्यहीन (Valueless) हैं...।’’ —‘टीचिंग्स ऑफ विवेकानंद, पृष्ठ-214, 215, 217, 218) अद्वैत आश्रम, कोलकाता-2004

मुंशी प्रेमचंद (प्रसिद्ध साहित्यकार)
‘‘...जहाँ तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को इतनी महानता नहीं दी जितनी इस्लाम ने। ...इस्लाम की बुनियाद न्याय पर रखी गई है। वहाँ राजा और रंक, अमीर और ग़रीब, बादशाह और फ़क़ीर के लिए ‘केवल एक’ न्याय है। किसी के साथ रियायत नहीं किसी का पक्षपात नहीं। ऐसी सैकड़ों रिवायतें पेश की जा सकती है जहाँ बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली आधिकारियों के मुक़ाबले में न्याय के बल से विजय पाई है। ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं जहाँ बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेगम, यहाँ तक कि स्वयं अपने तक को न्याय की वेदी पर होम कर दिया है। संसार की किसी सभ्य से सभ्य जाति की न्याय-नीति की, इस्लामी न्याय-नीति से तुलना कीजिए, आप इस्लाम का पल्ला झुका हुआ पाएँगे...।’’ ‘‘...जिन दिनों इस्लाम का झंडा कटक से लेकर डेन्युष तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फ़हराता था मुसलमान बादशाहों की धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी (समकक्ष) नहीं रखती थी। बड़े से बड़े राज्यपदों पर ग़ैर-मुस्लिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी, महाविद्यालयों के कुलपति तक ईसाई और यहूदी होते थे...।’’ ‘‘...यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस (समता) के विषय में इस्लाम ने अन्य सभी सभ्यताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वे सिद्धांत जिनका श्रेय अब कार्ल मार्क्स और रूसो को दिया जा रहा है वास्तव में अरब के मरुस्थल में प्रसूत हुए थे और उनका जन्मदाता अरब का वह उम्मी (अनपढ़, निरक्षर व्यक्ति) था जिसका नाम मुहम्मद (सल्ल॰) है। मुहम्मद (सल्ल॰) के सिवाय संसार में और कौन धर्म प्रणेता हुआ है जिसने ख़ुदा के सिवाय किसी मनुष्य के सामने सिर झुकाना गुनाह ठहराया है...?’’ ‘‘...कोमल वर्ग के साथ तो इस्लाम ने जो सलूक किए हैं उनको देखते हुए अन्य समाजों का व्यवहार पाशविक जान पड़ता है। किस समाज में स्त्रियों का जायदाद पर इतना हक़ माना गया है जितना इस्लाम में? ...हमारे विचार में वही सभ्यता श्रेष्ठ होने का दावा कर सकती है जो व्यक्ति को अधिक से अधिक उठने का अवसर दे। इस लिहाज़ से भी इस्लामी सभ्यता को कोई दूषित नहीं ठहरा सकता।’’ ‘‘...हज़रत (मुहम्मद सल्ल॰) ने फ़रमाया—कोई मनुष्य उस वक़्त तक मोमिन (सच्चा मुस्लिम) नहीं हो सकता जब तक वह अपने भाई-बन्दों के लिए भी वही न चाहे जितना वह अपने लिए चाहता है। ...जो प्राणी दूसरों का उपकार नहीं करता ख़ुदा उससे ख़ुश नहीं होता। उनका यह कथन सोने के अक्षरों में लिखे जाने योग्य है—‘‘ईश्वर की समस्त सृष्टि उसका परिवार है वही प्राणी ईश्वर का (सच्चा) भक्त है जो ख़ुदा के बन्दों के साथ नेकी करता है।’’ ...अगर तुम्हें ख़ुदा की बन्दगी करनी है तो पहले उसके बन्दों से मुहब्बत करो।’’ ‘‘...सूद (ब्याज) की पद्धति ने संसार में जितने अनर्थ किए हैं और कर रही है वह किसी से छिपे नहीं है। इस्लाम वह अकेला धर्म है जिसने सूद को हराम (अवैध) ठहराया है...।’’
—‘इस्लामी सभ्यता’ साप्ताहिक प्रताप विशेषांक दिसम्बर 1925


रामधारी सिंह दिनकर
(प्रसिद्ध साहित्यकार और इतिहासकार) जब इस्लाम आया, उसे देश में फैलने से देर नहीं लगी। तलवार के भय अथवा पद के लोभ से तो बहुत थोड़े ही लोग मुसलमान हुए, ज़्यादा तो ऐसे ही थे जिन्होंने इस्लाम का वरण स्वेच्छा से किया। बंगाल, कश्मीर और पंजाब में गाँव-के-गाँव एक साथ मुसलमान बनाने के लिए किसी ख़ास आयोजन की आवश्यकता नहीं हुई। ...मुहम्मद साहब ने जिस धर्म का उपदेश दिया वह अत्यंत सरल और सबके लिए सुलभ धर्म था। अतएव जनता उसकी ओर उत्साह से बढ़ी। ख़ास करके, आरंभ से ही उन्होंने इस बात पर काफ़ी ज़ोर दिया कि इस्लाम में दीक्षित हो जाने के बाद, आदमी आदमी के बीच कोई भेद नहीं रह जाता है। इस बराबरी वाले सिद्धांत के कारण इस्लाम की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई और जिस समाज में निम्न स्तर के लोग उच्च स्तर वालों के धार्मिक या सामाजिक अत्याचार से पीड़ित थे उस समाज के निम्न स्तर के लोगों के बीच यह धर्म आसानी से फैल गया...। ‘‘...सबसे पहले इस्लाम का प्रचार नगरों में आरंभ हुआ क्योंकि विजेयता, मुख्यतः नगरों में ही रहते थे...अन्त्यज और निचली जाति के लोगों पर नगरों में सबसे अधिक अत्याचार था। ये लोग प्रायः नगर के भीतर बसने नहीं दिए जाते थे...इस्लाम ने जब उदार आलिंगन के लिए अपनी बाँहें इन अन्त्यजों और ब्राह्मण-पीड़ित जातियों की ओर पढ़ाईं, ये जातियाँ प्रसन्नता से मुसलमान हो गईं। कश्मीर और बंगाल में तो लोग झुंड-के-झुंड मुसलमान हुए। इन्हें किसी ने लाठी से हाँक कर इस्लाम के घेरे में नहीं पहुँचाया, प्रत्युत, ये पहले से ही ब्राह्मण धर्म से चिढ़े हुए थे...जब इस्लाम आया...इन्हें लगा जैसे यह इस्लाम ही उनका अपना धर्म हो। अरब और ईरान के मुसलमान तो यहाँ बहुत कम आए थे। सैकड़े-पच्चानवे तो वे ही लोग हैं जिनके बाप-दादा हिन्दू थे...। ‘‘जिस इस्लाम का प्रवर्त्तन हज़रत मुहम्मद ने किया था...वह धर्म, सचमुच, स्वच्छ धर्म था और उसके अनुयायी सच्चरित्र, दयालु, उदार, ईमानदार थे। उन्होंने मानवता को एक नया संदेश दिया, गिरते हुए लोगों को ऊँचा उठाया और पहले-पहल दुनिया में यह दृष्टांत उपस्थित किया कि धर्म के अन्दर रहने वाले सभी आपस में समान हैं। उन दिनों इस्लाम ने जो लड़ाइयाँ लड़ीं उनकी विवरण भी मनुष्य के चरित्रा को ऊँचा उठाने वाला है।’’ —
‘संस्कृति के चार अध्याय’ लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994 पृष्ठ-262, 278, 284, 326, 317

अन्नादुराई (डी॰एमके॰ के संस्थापक, भूतपूर्व मुख्यमंत्री तमिलनाडु)
‘‘इस्लाम के सिद्धांतों और धारणाओं की जितनी ज़रूरत छठी शताब्दी में दुनिया को थी, उससे कहीं बढ़कर उनकी ज़रूरत आज दुनिया को है, जो विभिन्न विचारधाराओं की खोज में ठोकरें खा रही है और कहीं भी उसे चैन नहीं मिल सका है। इस्लाम केवल एक धर्म नहीं है, बल्कि वह एक जीवन-सिद्धांत और अति उत्तम जीवन-प्रणाली है। इस जीवन-प्रणाली को दुनिया के कई देश ग्रहण किए हुए हैं। जीवन-संबंधी इस्लामी दृष्टिकोण और इस्लामी जीवन-प्रणाली के हम इतने प्रशंसक क्यों हैं? सिर्फ़ इसलिए कि इस्लामी जीवन-सिद्धांत इन्सान के मन में उत्पन्न होने वाले सभी संदेहों ओर आशंकाओं का जवाब संतोषजनक ढंग से देते हैं। अन्य धर्मों में शिर्व$ (बहुदेववाद) की शिक्षा मौजूद होने से हम जैसे लोग बहुत-सी हानियों का शिकार हुए हैं। शिर्क के रास्तों को बन्द करके इस्लाम इन्सान को बुलन्दी और उच्चता प्रदान करता है और पस्ती और उसके भयंकर परिणामों से मुक्ति दिलाता है। इस्लाम इन्सान को सिद्ध पुरुष और भला मानव बनाता है। ख़ुदा ने जिन बुलन्दियों तक पहुँचने के लिए इन्सान को पैदा किया है, उन बुलन्दियों को पाने और उन तक ऊपर उठने की शक्ति और क्षमता इन्सान के अन्दर इस्लाम के द्वारा पैदा होती है।’’ इस्लाम की एक अन्य ख़ूबी यह है कि उसको जिसने भी अपनाया वह जात-पात के भेदभाव को भूल गया। मुदगुत्तूर (यह तमिलनाडु का एक गाँव है जहाँ ऊँची जात और नीची जात वालों के बीच भयानक दंगे हुए थे।) में एक-दूसरे की गर्दन मारने वाले जब इस्लाम ग्रहण करने लगे तो इस्लाम ने उनको भाई-भाई बना दिया। सारे भेदभाव समाप्त हो गए। नीची जाति के लोग नीचे नहीं रहे, बल्कि सबके सब प्रतिष्ठित और आदरणीय हो गए। सब समान अधिकारों के मालिक होकर बंधुत्व के बंधन में बंध गए। इस्लाम की इस ख़ूबी से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ। बर्नाड शॉ, जो किसी मसले के सारे ही पहलुओं का गहराई के साथ जायज़ा लेने वाले व्यक्ति थे, उन्होंने इस्लाम के उसूलों का विश्लेषण करने के बाद कहा था: ‘‘दुनिया में बाक़ी और क़ायम रहने वाला दीन (धर्म) यदि कोई है तो वह केवल इस्लाम है।’’ आज 1957 ई॰ में जब हम मानव-चिंतन को जागृत करने और जनता को उनकी ख़ुदी से अवगत कराने की थोड़ी-बहुत कोशिश करते हैं तो कितना विरोध होता है। चौदह सौ साल पहले जब नबी (सल्ल॰) ने यह संदेश दिया कि बुतों को ख़ुदा न बनाओ। अनेक ख़ुदाओं को पूजने वालों के बीच खड़े होकर यह ऐलान किया कि बुत तुम्हारे ख़ुदा नहीं हैं। उनके आगे सिर मत झुकाओ। सिर्प़$ एक स्रष्टा ही की उपासना करो। इस ऐलान के लिए कितना साहस चाहिए था, इस संदेश का कितना विरोध हुआ होगा। विरोध के तूफ़ान के बीच पूरी दृढ़ता के साथ आप (सल्ल॰) यह क्रांतिकारी संदेश देते रहे, यह आप (सल्ल॰) की महानता का बहुत बड़ा सुबूत है। इस्लाम अपनी सारी ख़ूबियों और चमक-दमक के साथ हीरे की तरह आज भी मौजूद है। अब इस्लाम के अनुयायियों का यह कर्तव्य है कि वे इस्लाम धर्म को सच्चे रूप में अपनाएँ। इस तरह वे अपने रब की प्रसन्नता और ख़ुशी भी हासिल कर सकते हैं और ग़रीबों और मजबूरों की परेशानी भी हल कर सकते हैं। और मानवता भौतिकी एवं आध्यात्मिक विकास की ओर तीव्र गति से आगे बढ़ सकती है।’’ —
‘मुहम्मद (सल्ल॰) का जीवन-चरित्रा’ पर भाषण 7 अक्टूबर 1957 ई॰

प्रोफ़ेसर के॰ एस॰ रामाकृष्णा राव
(अध्यक्ष, दर्शन-शास्त्र विभाग, राजकीय कन्या विद्यालय मैसूर, कर्नाटक)
‘‘पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षाओं का ही यह व्यावहारिक गुण है, जिसने वैज्ञानिक प्रवृत्ति को जन्म दिया। इन्हीं शिक्षाओं ने नित्य के काम-काज और उन कामों को भी जो सांसारिक काम कहलाते हैं आदर और पवित्राता प्रदान की। क़ुरआन कहता है कि इन्सान को ख़ुदा की इबादत के लिए पैदा किया गया है, लेकिन ‘इबादत’ (पूजा) की उसकी अपनी अलग परिभाषा है। ख़ुदा की इबादत केवल पूजा-पाठ आदि तक सीमित नहीं, बल्कि हर वह कार्य जो अल्लाह के आदेशानुसार उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने तथा मानव-जाति की भलाई के लिए किया जाए इबादत के अंतर्गत आता है। इस्लाम ने पूरे जीवन और उससे संबद्ध सारे मामलों को पावन एवं पवित्र घोषित किया है। शर्त यह है कि उसे ईमानदारी, न्याय और नेकनियती के साथ किया जाए। पवित्र और अपवित्र के बीच चले आ रहे अनुचित भेद को मिटा दिया। क़ुरआन कहता है कि अगर तुम पवित्र और स्वच्छ भोजन खाकर अल्लाह का आभार स्वीकार करो तो यह भी इबादत है। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को खाने का एक लुक़्मा खिलाता है तो यह भी नेकी और भलाई का काम है और अल्लाह के यहाँ वह इसका अच्छा बदला पाएगा। पैग़म्बर की एक और हदीस है—‘‘अगर कोई व्यक्ति अपनी कामना और ख़्वाहिश को पूरा करता है तो उसका भी उसे सवाब मिलेगा। शर्त यह है कि इसके लिए वही तरीक़ा अपनाए जो जायज़ हो।’’ एक साहब जो आपकी बातें सुन रहे थे, आश्चर्य से बोले, ‘‘हे अल्लाह के पैग़म्बर वह तो केवल अपनी इच्छाओं और अपने मन की कामनाओं को पूरा करता है। आपने उत्तर दिया, ‘यदि उसने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अवैध तरीक़ों और साधनों को अपनाया होता तो उसे इसकी सज़ा मिलती, तो फिर जायज़ तरीक़ा अपनाने पर उसे इनाम क्यों नहीं मिलना चाहिए? धर्म की इस नयी धारणा ने कि, ‘धर्म का विषय पूर्णतः अलौकिक जगत के मामलों तक सीमित न रहना चाहिए, बल्कि इसे लौकिक जीवन के उत्थान पर भी ध्यान देना चाहिए; नीति-शास्त्रा और आचार-शास्त्र के नए मूल्यों एवं मान्यताओं को नई दिशा दी। इसने दैनिक जीवन में लोगों के सामान्य आपसी संबंधों पर स्थाई प्रभाव डाला। इसने जनता के लिए गहरी शक्ति का काम किया, इसके अतिरिक्त लोगों के अधिकारों और कर्तव्यों की धारणाओं को सुव्यवस्थित करना और इसका अनपढ़ लोगों और बुद्धिमान दार्शनिकों के लिए समान रूप से ग्रहण करने और व्यवहार में लाने के योग्य होना पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। यहाँ यह बात सतर्कता के साथ दिमाग़ में आ जानी चाहिए कि भले कामों पर ज़ोर देने का अर्थ यह नहीं है कि इसके लिए धार्मिक आस्थाओं की पवित्रता एवं शुद्धता को कु़र्बान किया गया है। ऐसी बहुत-सी विचारधाराएँ हैं, जिनमें या तो व्यावहारिता के महत्व की बलि देकर आस्थाओं ही को सर्वोपरि माना गया है या फिर धर्म की शुद्ध धारणा एवं आस्था की परवाह न करके केवल कर्म को ही महत्व दिया गया है। इनके विपरीत इस्लाम सत्य आस्था एवं सतकर्म (के सामंजस्य) के नियम पर आधारित है। यहाँ साधन भी उतना ही महत्व रखते हैं जितना लक्ष्य। लक्ष्यों को भी वही महत्ता प्राप्त है जो साधनों को प्राप्त है। यह एक जैव इकाई की तरह है, इसके जीवन और विकास का रहस्य इनके आपस में जुड़े रहने में निहित है। अगर ये एक-दूसरे से अलग होते हैं तो ये क्षीण और विनष्ट होकर रहेंगे। इस्लाम में ईमान और अमल को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। सत्य ज्ञान को सत्कर्म में ढल जाना चाहिए। ताकि अच्छे फल प्राप्त हो सवें$। ‘जो लोग ईमान रखते हैं और नेक अमल करते हैं, केवल वे ही स्वर्ग में जा सकेंगे’ यह बात क़ुरआन में कितनी ही बार दोहराई गयी है। इस बात को पचास बार से कम नहीं दोहराया गया है। सोच-विचार और ध्यान पर उभारा अवश्य गया है, लेकिन मात्र ध्यान और सोच-विचार ही लक्ष्य नहीं है। जो लोग केवल ईमान रखें, लेकिन उसके अनुसार कर्म न करें उनका इस्लाम में कोई मक़ाम नहीं है। जो ईमान तो रखें लेकिन कुकर्म भी करें उनका ईमान क्षीण है। ईश्वरीय क़ानून मात्र विचार-पद्धति नहीं, बल्कि वह एक कर्म और प्रयास का क़ानून है। यह दीन (धर्म) लोगों के लिए ज्ञान से कर्म और कर्म से परितोष द्वारा स्थाई एवं शाश्वत उन्नति का मार्ग दिखलाता है। लेकिन वह सच्चा ईमान क्या है, जिससे सत्कर्म का आविर्भाव होता है, जिसके फलस्वरूप पूर्ण परितोष प्राप्त होता है? इस्लाम का बुनियादी सिद्धांत ऐकेश्वरवाद है ‘अल्लाह बस एक ही है, उसके अतिरिक्त कोई इलाह नहीं’ इस्लाम का मूल मंत्र है। इस्लाम की तमाम शिक्षाएँ और कर्म इसी से जुड़े हुए हैं। वह केवल अपने अलौकिक व्यक्तित्व के कारण ही अद्वितीय नहीं, बल्कि अपने दिव्य एवं अलौकिक गुणों एवं क्षमताओं की दृष्टि से भी अनन्य और बेजोड़ है।’’ —
‘मुहम्मद, इस्लाम के पैग़म्बर’ मधुर संदेश संगम, नई दिल्ली, 1990


वेनगताचिल्लम अडियार
जन्म: 16, मई 1938 ● वरिष्ठ तमिल लेखक; न्यूज़ एडीटर: दैनिक ‘मुरासोली’
● तमिलनाडु के 3 मुख्यमंत्रियों के सहायक ● कलाइममानी अवार्ड (विग जेम ऑफ आर्ट्स) तमिलनाडु सरकार; पुरस्कृत 1982 ● 120 उपन्यासों, 13 पुस्तकों, 13 ड्रामों के लेखक ● संस्थापक, पत्रिका ‘नेरोत्तम’ ‘
‘औरत के अधिकारों से अनभिज्ञ अरब समाज में प्यारे नबी (सल्ल॰) ने औरत को मर्द के बराबर दर्जा दिया। औरत का जायदाद और सम्पत्ति में कोई हक़ न था, आप (सल्ल॰) ने विरासत में उसका हक़ नियत किया। औरत के हक़ और अधिकार बताने के लिए क़ुरआन में निर्देश उतारे गए। माँ-बाप और अन्य रिश्तेदारों की जायदाद में औरतों को भी वारिस घोषित किया गया। आज सभ्यता का राग अलापने वाले कई देशों में औरत को न जायदाद का हक़ है न वोट देने का। इंग्लिस्तान में औरत को वोट का अधिकार 1928 ई॰ में पहली बार दिया गया। भारतीय समाज में औरत को जायदाद का हक़ पिछले दिनों में हासिल हुआ। लेकिन हम देखते हैं कि आज से चौदह सौ वर्ष पूर्व ही ये सारे हक़ और अधिकार नबी (सल्ल॰) ने औरतों को प्रदान किए। कितने बड़े उपकारकर्ता हैं आप। आप (सल्ल॰) की शिक्षाओं में औरतों के हक़ पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है। आप (सल्ल॰) ने ताकीद की कि लोग कर्तव्य से ग़ाफ़िल न हों और न्यायसंगत रूप से औरतों के हक़ अदा करते रहें। आप (सल्ल॰) ने यह भी नसीहत की है कि औरत को मारा-पीटा न जाए। औरत के साथ कैसा बर्ताव किया जाए, इस संबंध में नबी (सल्ल॰) की बातों का अवलोकन कीजिए: 1. अपनी पत्नी को मारने वाला अच्छे आचरण का नहीं है। 2. तुममें से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह है जो अपनी पत्नी से अच्छा सुलूक करे। 3. औरतों के साथ अच्छे तरीक़े से पेश आने का ख़ुदा हुक्म देता है, क्योंकि वे तुम्हारी माँ, बहन और बेटियाँ हैं। 4. माँ के क़दमों के नीचे जन्नत है। 5. कोई मुसलमान अपनी पत्नी से नफ़रत न करे। अगर उसकी कोई एक आदत बुरी है तो उसकी दूसरी अच्छी आदत को देखकर मर्द को ख़ुश होना चाहिए। 6. अपनी पत्नी के साथ दासी जैसा व्यवहार न करो। उसको मारो भी मत। 7. जब तुम खाओ तो अपनी पत्नी को भी खिलाओ। जब तुम पहनो तो अपनी पत्नी को भी पहनाओ। 8. पत्नी को ताने मत दो। चेहरे पर न मारो। उसका दिल न दुखाओ। उसको छोड़कर न चले जाओ। 9. पत्नी अपने पति के स्थान पर समस्त अधिकारों की मालिक है। 10. अपनी पत्नियों के साथ जो अच्छी तरह बर्ताव करेंगे, वही तुम में सबसे बेहतर हैं। मर्द को किसी भी समय अपनी काम-तृष्णा की ज़रूरत पेश आ सकती है। इसलिए कि उसे क़ुदरत ने हर हाल में हमेशा सहवास के योग्य बनाया है जबकि औरत का मामला इससे भिन्न है। माहवारी के दिनों में, गर्भावस्था में (नौ-दस माह), प्रसव के बाद के कुछ माह औरत इस योग्य नहीं होती कि उसके साथ उसका पति संभोग कर सके। सारे ही मर्दों से यह आशा सही न होगी कि वे बहुत ही संयम और नियंत्रण से काम लेंगे और जब तक उनकी पत्नियाँ इस योग्य नहीं हो जातीं कि वे उनके पास जाएँ, वे काम इच्छा को नियंत्रित रखेंगे। मर्द जायज़ तरीक़े से अपनी ज़रूरत पूरी कर सके, ज़रूरी है कि इसके लिए राहें खोली जाएँ और ऐसी तंगी न रखी जाए कि वह हराम रास्तों पर चलने पर विवश हो। पत्नी तो उसकी एक हो, आशना औरतों की कोई क़ैद न रहे। इससे समाज में जो गन्दगी फैलेगी और जिस तरह आचरण और चरित्रा ख़राब होंगे इसका अनुमान लगाना आपके लिए कुछ मुश्किल नहीं है। व्यभिचार और बदकारी को हराम ठहराकर बहुस्त्रीवाद की क़ानूनी इजाज़त देने वाला बुद्धिसंगत दीन इस्लाम है। एक से अधिक शादियों की मर्यादित रूप में अनुमति देकर वास्तव में इस्लाम ने मर्द और औरत की शारीरिक संरचना, उनकी मानसिक स्थितियों और व्यावहारिक आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा है और इस तरह हमारी दृष्टि में इस्लाम बिल्कुल एक वैज्ञानिक धर्म साबित होता है। यह एक हक़ीक़त है, जिस पर मेरा दृढ़ और अटल विश्वास है। इतिहास में हमें कोई ऐसी घटना नहीं मिलती कि अगर किसी ने इस्लाम क़बूल करने से इन्कार किया तो उसे केवल इस्लाम क़बूल न करने के जुर्म में क़त्ल कर दिया गया हो, लेकिन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच संघर्ष में धर्म की बुनियाद पर बड़े पैमाने पर ख़ून-ख़राबा हुआ। दूर क्यों जाइए, तमिलनाउु के इतिहास ही को देखिए, मदुरै में ज्ञान समुन्द्र के काल में आठ हज़ार समनर मत के अनुयायियों को सूली दी गई, यह हमारा इतिहास है। अरब में प्यारे नबी (सल्ल॰) शासक थे तो वहाँ यहूदी भी आबाद थे और ईसाई भी, लेकिन आप (सल्ल॰) ने उन पर कोई ज़्यादती नहीं की। हिन्दुस्तान में मुस्लिम शासकों के ज़माने में हिन्दू धर्म को अपनाने और उस पर चलने की पूर्ण अनुमति थी। इतिहास गवाह है कि इन शासकों ने मन्दिरों की रक्षा और उनकी देखभाल की है। मुस्लिम फ़ौजकशी अगर इस्लाम को फैलाने के लिए होती तो दिल्ली के मुस्लिम सुल्तान के ख़िलाफ़ मुसलमान बाबर हरगिज़ फ़ौजकशी न करता। मुल्कगीरी उस समय की सर्वमान्य राजनीति थी। मुल्कगीरी का कोई संबंध धर्म के प्रचार से नहीं होता। बहुत सारे मुस्लिम उलमा और सूफ़ी इस्लाम के प्रचार के लिए हिन्दुस्तान आए हैं और उन्होंने अपने तौर पर इस्लाम के प्रचार का काम यहाँ अंजाम दिया, उसका मुस्लिम शासकों से कोई संबंध न था, इसके सबूत में नागोर में दफ़्न हज़रत शाहुल हमीद, अजमेर के शाह मुईनुद्दीन चिश्ती वग़ैरह को पेश किया जा सकता है। इस्लाम अपने उसूलों और अपनी नैतिक शिक्षाओं की दृष्टि से अपने अन्दर बड़ी कशिश रखता है, यही वजह है कि इन्सानों के दिल उसकी तरफ़ स्वतः खिंचे चले आते हैं। फिर ऐसे दीन को अपने प्रचार के लिए तलवार उठाने की आवश्यकता ही कहाँ शेष रहती है? श्री वेनगाताचिल्लम अडियार ने बाद में (6 जून 1987 को) इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। और ‘अब्दुल्लाह अडियार’ नाम रख लिया था। श्री अडियार से प्रभावित होकर जिन लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया उनमें उल्लेखनीय विभूतियाँ हैं : 1) श्री कोडिक्कल चेलप्पा, भूतपूर्व ज़िला सचिव, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (अब ‘कोडिक्कल शेख़ अब्दुल्लाह’) 2) वीरभद्रनम, डॉ॰ अम्बेडकर के सहपाठी (अब ‘मुहम्मद बिलाल’) 3) स्वामी आनन्द भिक्खू—बौद्ध भिक्षु (अब ‘मुजीबुल्लाह’) श्री अब्दुल्लाह अडियार के पिता वन्कटचिल्लम और उनके दो बेटों ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया था। —
‘इस्लाम माय फ़सिनेशन’ एम॰एम॰आई॰ पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 2007


विशम्भर नाथ पाण्डे
भूतपूर्व राज्यपाल, उड़ीसा
क़ुरआन ने मनुष्य के आध्यात्मिक, आर्थिक और राजकाजी जीवन को जिन मौलिक सिद्धांतों पर क़ायम करना चाहा है उनमें लोकतंत्र को बहुत ऊँची जग हदी गई है और समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व-भावना के स्वर्णिम सिद्धांतों को मानव जीवन की बुनियाद ठहराया गया है। क़ुरआन ‘‘तौहीद’’ यानी एकेश्वरवाद को दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई बताता है। वह आदमी की ज़िन्दगी के हर पहलू की बुनियाद इसी सच्चाई पर क़ायम करता है। क़ुरआन का कहना है कि जब कुल सृष्टि का ईश्वर एक है तो लाज़मी तौर पर कुल मानव समाज भी उसी ईश्वर की एकता का एक रूप है। आदमी अपनी बुद्धि और अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ सकता इै। इसलिए आदमी का सबसे पहला कर्तव्य यह है कि ईश्वर की एकता को अपने धर्म-ईमान की बुनियाद बनाए और अपने उस मालिक के सामने, जिसने उसे पैदा किया और दुनिया की नेमतें दीं, सर झुकाए। आदमी की रूहानी ज़िन्दगी का यही सबसे पहला उसूल है। एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर ही आधारित क़ुरआन ने दो तरह के कर्तव्य हर आदमी के सामने रखे हैं—एक, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-अल्लाह’ अर्थात ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य कहता है और दूसरे, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति-मानव के कर्तव्य। हक़ू$क़-अल्लाह में नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, आख़रत और देवदूतों (फ़रिश्तों) पर विश्वास जैसी बातें शामिल हैं, जिन्हें हर व्यक्ति देश काल के अनुसार अपने ढंग से पूरा कर सकता है। क़ुरआन ने इन्हें इन्सान के लिए फ़र्ज़ बताया है इसे ही वास्तविक इबादत (ईश्वर पूजा) कहा है। इन कर्तव्यों के पूरा करने से आदमी में रूहानी शक्ति आती है। ‘हक़ू$क़-अल्लाह’ के साथ ही क़ुरआन ने हक़ू$क़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति मानव के कर्तव्य पर भी ज़ोर दिया है और साफ़ कहा है कि अगर हक़ूक़-अल्लाह के पूरा करने में किसी तरह की कमी रह जाए तो ख़ुदा माफ़ कर सकता है, लेकिन अगर हक़ूक़-उल-अबाद के पूरा करने में ज़र्रा बराबर की कमी रह जाए तो ख़ुदा उसे हरगिज़ माफ़ न करेगा। ऐसे आदमी को इस दुनिया और दूसरी दुनिया, दोनों में, ख़िसारा अर्थात् घाटा उठाना होगा। क़ुरआन का यह पहला बुनियादी उसूल हुआ। क़ुरआन का दूसरा उसूल यह है कि हक़ूक़-अल्लाह यानी नमाज़ रोज़ा, ज़कात और हज आदमी के आध्यात्मिक (रूहानी) जीवन और आत्मिक जीवन (Spiritual Life) से संबंध रखते हैं। इसलिए इन्हें ईमान (श्रद्धा), ख़ुलूसे क़ल्ब (शुद्ध हृदय) और बेग़रज़ी (निस्वार्थ भावना) के साथ पूरा करना चाहिए, यानी इनके पूरा करने में अपने लिए कोई निजी या दुनियावी फ़ायदा, ...निगाह में नहीं होनी चाहिए। यह केवल अल्लाह के निकट जाने के लिए और रूहानी शक्ति हासिल करने के लिए हैं ताकि आदमी दीन-धर्म की सीधी राह पर चल सके। अगर इनमें कोई भी स्वार्थ या ख़ुदग़रज़ी आएगी तो इनका वास्तविक उद्देश्य जाता रहेगा और यह व्यर्थ हो जाएँगे। आदमी की समाजी ज़िन्दगी का पहला फ़र्ज़ क़ुरआन में ग़रीबों, लाचारों, दुखियों और पीड़ितों से सहानुभूति और उनकी सहायता करना बताया गया है। क़ुरआन ने इन्सान के समाजी जीवन की बुनियाद ईश्वर की एकता और इन्सानी भाईचारे पर रखी है। क़ुरआन की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि वह इन्सानियत के, मानवता के, टुकड़े नहीं करता। इस्लाम के इन्सानी भाईचारे की परिधि में कुल मानवजाति, कुल इन्सान शामिल हैं और हर व्यक्ति को सदा सबकी अर्थात् आखिल मानवता की भलाई, बेहतरी और कल्याण का ध्येय अपने सामने रखना चाहिए। क़ुरआन का कहना है कि सारा मानव समाज एक कुटुम्ब है। क़ुरआन की कई आयतों में नबियों और पैग़म्बरों को भी भाई शब्द से संबोधित किया गया है। मुहम्मद साहब हर समय की नमाज़ के बाद आमतौर पर यह कहा करते थे—‘‘मैं साक्षी हूँ कि दुनिया के सब आदमी एक-दूसरे के भाई हैं।’’ यह शब्द इतनी गहराई और भावुकता के साथ उनके गले से निकलते थे कि उनकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगते थे। इससे अधिक स्पष्ट और ज़ोरदार शब्दों में मानव-एकता और मानवजाति के एक कुटुम्ब होने का बयान नहीं किया जा सकता। कु़रआन की यह तालीम और इस्लाम के पैग़म्बर की यह मिसाल उन सारे रिवाजों और क़ायदे-क़ानूनों और उन सब क़ौमी, मुल्की, और नसली...गिरोहबन्दियों को एकदम ग़लत और नाजायज़ कर देती है जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अलग करती हैं और मानव-मानव के बीच भेदभाव और झगड़े पैदा करती हैं। —
‘पैग़म्बर मुहम्मद, कु़रआन और हदीस, इस्लामी दर्शन’ गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली, 1994


तरुण विजय
सम्पादक, हिन्दी साप्ताहिक ‘पाञ्चजन्य’ (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पत्रिका)
‘‘...क्या इससे इन्कार मुम्किन है कि पैग़म्बर मुहम्मद एक ऐसी जीवन-पद्धति बनाने और सुनियोजित करने वाली महान विभूति थे जिसे इस संसार ने पहले कभी नहीं देखा? उन्होंने इतिहास की काया पलट दी और हमारे विश्व के हर क्षेत्र पर प्रभाव डाला। अतः अगर मैं कहूँ कि इस्लाम बुरा है तो इसका मतलब यह हुआ कि दुनिया भर में रहने वाले इस धर्म के अरबों (Billions) अनुयायियों के पास इतनी बुद्धि-विवेक नहीं है कि वे जिस धर्म के लिए जीते-मरते हैं उसी का विश्लेषण और उसकी रूपरेखा का अनुभव कर सवें$। इस धर्म के अनुयायियों ने मानव-जीवन के लगभग सारे क्षेत्रों में बड़ा नाम कमाया और हर किसी से उन्हें सम्मान मिला...।’’ ‘‘हम उन (मुसलमानों) की किताबों का, या पैग़म्बर के जीवन-वृत्तांत का, या उनके विकास व उन्नति के इतिहास का अध्ययन कम ही करते हैं... हममें से कितनों ने तवज्जोह के साथ उस परिस्थिति पर विचार किया है जो मुहम्मद के, पैग़म्बर बनने के समय, 14 शताब्दियों पहले विद्यमान थे और जिनका बेमिसाल, प्रबल मुक़ाबला उन्होंने किया? जिस प्रकार से एक अकेले व्यक्ति के दृढ़ आत्म-बल तथा आयोजन-क्षमता ने हमारी ज़िन्दगियों को प्रभावित किया और समाज में उससे एक निर्णायक परिवर्तन आ गया, वह असाधारण था। फिर भी इसकी गतिशीलता के प्रति हमारा जो अज्ञान है वह हमारे लिए एक ऐसे मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं है जिसे माफ़ नहीं किया जा सकता।’’ ‘‘पैग़म्बर मुहम्मद ने अपने बचपन से ही बड़ी कठिनाइयाँ झेलीं। उनके पिता की मृत्यु, उनके जन्म से पहले ही हो गई और माता की भी, जबकि वह सिर्प़$ छः वर्ष के थे। लेकिन वह बहुत ही बुद्धिमान थे और अक्सर लोग आपसी झगड़े उन्हीं के द्वारा सुलझवाया करते थे। उन्होंने परस्पर युद्धरत क़बीलों के बीच शान्ति स्थापित की और सारे क़बीलों में ‘अल-अमीन’ (विश्वसनीय) कहलाए जाने का सम्मान प्राप्त किया जबकि उनकी आयु मात्रा 35 वर्ष थी। इस्लाम का मूल-अर्थ ‘शान्ति’ था...। शीघ्र ही ऐसे अनेक व्यक्तियों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया, उनमें ज़ैद जैसे गु़लाम (Slave) भी थे, जो सामाजिक न्याय से वंचित थे। मुहम्मद के ख़िलाफ़ तलवारों का निकल आना कुछ आश्चर्यजनक न था, जिसने उन्हें (जन्म-भूमि ‘मक्का’ से) मदीना प्रस्थान करने पर विवश कर दिया और उन्हें जल्द ही 900 की सेना का, जिसमें 700 ऊँट और 300 घोड़े थे मुक़ाबला करना पड़ा। 17 रमज़ान, शुक्रवार के दिन उन्होंने (शत्रु-सेना से) अपने 300 अनुयायियों और 4 घोड़ों (की सेना) के साथ बद्र की लड़ाई लड़ी। बाक़ी वृत्तांत इतिहास का हिस्सा है। शहादत, विजय, अल्लाह की मदद और (अपने) धर्म में अडिग विश्वास!’’ —
आलेख (‘Know thy neighbor, it’s Ramzan’ अंग्रेज़ी दैनिक ‘एशियन एज’, 17 नवम्बर 2003 से उद्धृत

एम॰ एन॰ रॉय संस्थापक-कम्युनिस्ट पार्टी, मैक्सिको कम्युनिस्ट पार्टी, भारत
‘‘इस्लाम के एकेश्वरवाद के प्रति अरब के बद्दुओं के दृढ़ विश्वास ने न केवल क़बीलों के बुतों को ध्वस्त कर दिया बल्कि वे इतिहास में एक ऐसी अजेय शक्ति बनकर उभरे जिसने मानवता को बुतपरस्ती की लानत से छुटकारा दिलाया। ईसाइयों के, संन्यास और चमत्कारों पर भरोसा करने की घातक प्रवृत्ति को झिकझोड़ कर रख दिया और पादरियों और हवारियों (मसीह के साथियों) के पूजा की कुप्रथा से भी छुटकारा दिला दिया।’’ ‘‘सामाजिक बिखराव और आध्यात्मिक बेचैनी के घोर अंधकार वाले वातावरण में अरब के पैग़म्बर की आशावान एवं सशक्त घोषणा आशा की एक प्रज्वलित किरण बनकर उभरी। लाखों लोगों का मन उस नये धर्म की सांसारिक एवं पारलौकिक सफलता की ओर आकर्षित हुआ। इस्लाम के विजयी बिगुल ने सोई हुई निराश ज़िन्दगियों को जगा दिया। मानव-प्रवृ$ति के स्वस्थ रुझान ने उन लोगों में भी हिम्मत पैदा की जो ईसा के प्रतिष्ठित साथियों के पतनशील होने के बाद संसार-विमुखता के अंधविश्वासी कल्पना के शिकार हो चुके थे। वे लोग इस नई आस्था से जुड़ाव महसूस करने लगे। इस्लाम ने उन लोगों को जो अपमान के गढ़े में पड़े हुए थे एक नई सोच प्रदान की। इसलिए जो उथल-पुथल पैदा हुई उससे एक नए समाज का गठन हुआ जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को यह अवसर उपलब्ध था कि वह अपनी स्वाभाविक क्षमताओं के अनुसार आगे बढ़ सके और तरक़्क़ी कर सके। इस्लाम की जोशीली तहरीक और मुस्लिम विजयताओं के उदार रवैयों ने उत्तरी अफ़्रीक़ा की उपजाऊ भूमि में लोगों के कठिन परिश्रम के कारण जल्द ही हरियाली छा गई और लोगों की ख़ुशहाली वापस आ गई...।’’ ‘‘...ईसाइयत के पतन ने एक नये शक्तिशाली धर्म के उदय को ऐतिहासिक ज़रूरत बना दिया था। इस्लाम ने अपने अनुयायियों को एक सुन्दर स्वर्ग की कल्पना ही नहीं दी बल्कि उसने दुनिया को पराजित करने का आह्वान भी किया। इस्लाम ने बताया कि जन्नत की ख़ुशियों भरी ज़िन्दगी इस दुनिया में भी संभव हैं। मुहम्मद ने अपने लोगों को क़ौमी एकता के धागे में ही नहीं पिरोया बल्कि पूरी क़ौम के अन्दर वह भाव और जोश पैदा किया कि वे हर जगह इन्क़िलाब का नारा बुलन्द करे जिसे सुनकर पड़ोसी देशों के शोषित/पीड़ित लोगों ने भी इस्लाम का आगे बढ़कर स्वागत किया। इस्लाम की इस नाटकीय सफलता का कारण आध्यात्मिक भी था, सामाजिक भी था और राजनीतिक भी। इसी बात पर ज़ोर देते हुए गिबन कहता है: ज़रतुश्त की व्यवस्था से अधिक स्वच्छ एवं पारदर्शी और मूसा के क़ानूनों से कहीं अधिक लचीला मुहम्मद का यह धर्म, बुद्धि एवं विवेक से अधिक निकट है। अंधविश्वास और पहेली से इसकी तुलना नहीं की जा सकती जिसने सातवीं शताब्दी में मूसा की शिक्षाओं को बदनुमा बना दिया था...।’’ ‘‘...हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) का धर्म एकेश्वरवाद पर आधारित है और एकेश्वरवाद की आस्था ही उसकी ठोस बुनियाद भी है। इसमें किसी प्रकार के छूट की गुंजाइश नहीं और अपनी इसी विशेषता के कारण वह धर्म का सबसे श्रेष्ठ पैमाना भी बना। दार्शनिक दृष्टिकोण से भी एकेश्वरवाद की कल्पना ही इस धर्म की बुनियाद है। लेकिन एकेश्वरवाद की यह कल्पना भी अनेक प्रकार के अंधविश्वास को जन्म दे सकती है यदि यह दृष्टिकोण सामने न हो कि अल्लाह ने सृष्टि की रचना की है और इस सृष्टि से पहले कुछ नहीं था। प्राचीन दार्शनिक, चाहे वे यूनान के हों या भारत के, उनके यहां सृष्टि की रचना की यह कल्पना नहीं मिलती। यही कारण है कि जो धर्म उस प्राचीन दार्शनिक सोच से प्रभावित थे वे एकेश्वरवाद का नज़रिया क़ायम नहीं कर सके। जिसकी वजह से सभी बड़े-बड़े धर्म, चाहे वह हिन्दू धर्म हो, यहूदियत हो या ईसाइयत, धीरे-धीरे कई ख़ुदाओं को मानने लगे। यही कारण है कि वे सभी धर्म अपनी महानता खो बैठे। क्योंकि कई ख़ुदाओं की कल्पना सृष्टि को ख़ुदा के साथ सम्मिलित कर देती है जिससे ख़ुदा की कल्पना पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। इससे पैदा करने की कल्पना ही समाप्त हो जाती है, इसलिए ख़ुदा की कल्पना भी समाप्त हो जाती है। यदि यह दुनिया अपने आप स्थापित हो सकती है तो यह ज़रूरी नहीं कि उसका कोई रचयिता भी हो और जब उसके अन्दर से पैदा करने की क्षमता समाप्त हो जाती है तो फिर ख़ुदा की भी आवश्यकता नहीं रहती। मुहम्मद का धर्म इस कठिनाई को आसानी से हल कर लेता है। यह ख़ुदा की कल्पना को आरंभिक बुद्धिवादियों की कठिनाइयों से आज़ाद करके यह दावा करता है कि अल्लाह ने ही सृष्टि की रचना की है। इस रचना से पहले कुछ नहीं था। अब अल्लाह अपनी पूरी शान और प्रतिष्ठा के साथ विराजमान हो जाता है। उसके अन्दर इस चीज़ की क्षमता एवं शक्ति है कि न केवल यह कि वह इस सृष्टि की रचना कर सकता है बल्कि अनेक सृष्टि की रचना करने की क्षमता रखता है। यह उसके शक्तिशाली और हैयुल क़ैयूम होने की दलील है। ख़ुदा को इस तरह स्थापित करने और स्थायित्व प्रदान करने की कल्पना ही मुहम्मद कारनामा है। अपने इस कारनामे के कारण ही इतिहास ने उन्हें सबसे स्वच्छ एवं पाक धर्म की बुनियाद रखने वाला मानता है। क्योंकि दूसरे सभी धर्म अपने समस्त भौतिक/प्राभौतिक कल्पनाओं, धार्मिक बारीकियों और दार्शनिक तर्कों/कुतर्कों के कारण न केवल त्रुटिपूर्ण धर्म हैं बल्कि केवल नाम के धर्म हैं...।’’ ‘‘...यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत में मुसलमानों की विजय के समय ऐसे लाखों लोग यहां मौजूद थे जिनके नज़दीक हिन्दू क़ानूनों के प्रति व़फादार रहने का कोई औचित्य नहीं था। और ब्राह्मणों की कट्टर धार्मिकता एवं परम्पराओं की रक्षा उनके नज़दीक निरर्थक थे। ऐसे सभी लोग अपनी हिन्दू विरासत को इस्लाम के समानता के क़ानून के लिए त्यागने को तैयार थे जो उन्हें हर प्रकार की सुरक्षा भी उपलब्ध करा रहा था ताकि वे कट्टर हिन्दुत्ववादियों के अत्याचार से छुटकारा हासिल कर सवें$। फिर भी हैवेल (Havel) इस बात से संतुष्ट नहीं था। हार कर उसने कहा: ‘‘यह इस्लाम का दर्शनशास्त्र नहीं था बल्कि उसकी सामाजिक योजना थी जिसके कारण लाखों लोगों ने इस धर्म को स्वीकार कर लिया। यह बात बिल्कुल सही है कि आम लोग दर्शन से प्रभावित नहीं होते। वे सामाजिक योजनाओं से अधिक प्रभावित होते हैं जो उन्हें मौजूदा ज़िन्दगी से बेहतर ज़िन्दगी की ज़मानत दे रहा था। इस्लाम ने जीवन की ऐसी व्यवस्था दी जो करोड़ों लोगों की ख़ुशी की वजह बना।’’ ‘‘....ईरानी और मुग़ल विजेयताओं के अन्दर वह पारम्परिक उदारता और आज़ादपसन्दी मिलती है जो आरंभिक मुसलमानों की विशेषता थी। केवल यह सच्चाई कि दूर-दराज़ के मुट्ठी भर हमलावर इतने बड़े देश का इतनी लंबी अवधि तक शासक बने रहे और उनके अक़ीदे को लाखों लोगों ने अपनाकर अपना धर्म परिवर्तन कर लिया, यह साबित करने के लिए काफ़ी है कि वे भारतीय समाज की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर रहे थे। भारत में मुस्लिम शक्ति केवल कुछ हमलावरों की बहादुरी के कारण संगठित नहीं हुई थी बल्कि इस्लामी क़ानून के विकासमुखी महत्व और उसके प्रचार के कारण हुई थी। ऐसा हैवेल जैसा मुस्लिम विरोधी इतिहासकार भी मानता है। मुसलमानों की राजनैतिक व्यवस्था का हिन्दू सामाजिक जीवन पर दो तरह का प्रभाव पड़ा। इससे जाति-पाति के शिवं$जे और मज़बूत हुए जिसके कारण उसके विरुद्ध बग़ावत शुरू हो गई। साथ ही निचली और कमज़ोर जातियों के लिए बेहतर जीवन और भविष्य की ज़मानत उन्हें अपना धर्म छोड़कर नया धर्म अपनाने के लिए मजबूर करती रही। इसी की वजह से शूद्र न केवल आज़ाद हुए बल्कि कुछ मामलों में वे ब्राह्मणों के मालिक भी बन गए।’’ —‘हिस्टोरिकल रोल ऑफ इस्लाम ऐन एस्से ऑन इस्लामिक कल्चर’ क्रिटिकल क्वेस्ट पब्लिकेशन कलकत्ता-1939 से उद्धृत

राजेन्द्र नारायण लाल
(एम॰ ए॰ (इतिहास) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
‘‘...संसार के सब धर्मों में इस्लाम की एक विशेषता यह भी है कि इसके विरुद्ध जितना भ्रष्ट प्रचार हुआ किसी अन्य धर्म के विरुद्ध नहीं हुआ । सबसे पहले तो महाईशदूत मुहम्मद साहब की जाति कु़रैश ही ने इस्लाम का विरोध किया और अन्य कई साधनों के साथ भ्रष्ट प्रचार और अत्याचार का साधन अपनाया। यह भी इस्लाम की एक विशेषता ही है कि उसके विरुद्ध जितना प्रचार हुआ वह उतना ही फैलता और उन्नति करता गया तथा यह भी प्रमाण है—इस्लाम के ईश्वरीय सत्य-धर्म होने का। इस्लाम के विरुद्ध जितने प्रकार के प्रचार किए गए हैं और किए जाते हैं उनमें सबसे उग्र यह है कि इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला, यदि ऐसा नहीं है तो संसार में अनेक धर्मों के होते हुए इस्लाम चमत्कारी रूप से संसार में कैसे फैल गया? इस प्रश्न या शंका का संक्षिप्त उत्तर तो यह है कि जिस काल में इस्लाम का उदय हुआ उन धर्मों के आचरणहीन अनुयायियों ने धर्म को भी भ्रष्ट कर दिया था। अतः मानव कल्याण हेतु ईश्वर की इच्छा द्वारा इस्लाम सफल हुआ और संसार में फैला, इसका साक्षी इतिहास है...।’’ ‘‘...इस्लाम को तलवार की शक्ति से प्रसारित होना बताने वाले (लोग) इस तथ्य से अवगत होंगे कि अरब मुसलमानों के ग़ैर-मुस्लिम विजेता तातारियों ने विजय के बाद विजित अरबों का इस्लाम धर्म स्वयं ही स्वीकार कर लिया। ऐसी विचित्र घटना कैसे घट गई? तलवार की शक्ति जो विजेताओं के पास थी वह इस्लाम से विजित क्यों हो गई...?’’ ‘‘...मुसलमानों का अस्तित्व भारत के लिए वरदान ही सिद्ध हुआ। उत्तर और दक्षिण भारत की एकता का श्रेय मुस्लिम साम्राज्य, और केवल मुस्लिम साम्राज्य को ही प्राप्त है। मुसलमानों का समतावाद भी हिन्दुओं को प्रभावित किए बिना नहीं रहा। अधिकतर हिन्दू सुधारक जैसे रामानुज, रामानन्द, नानक, चैतन्य आदि मुस्लिम-भारत की ही देन है। भक्ति आन्दोलन जिसने कट्टरता को बहुत कुछ नियंत्रित किया, सिख धर्म और आर्य समाज जो एकेश्वरवादी और समतावादी हैं, इस्लाम ही के प्रभाव का परिणाम हैं। समता संबंधी और सामाजिक सुधार संबंधी सरकरी क़ानून जैसे अनिवार्य परिस्थिति में तलाक़ और पत्नी और पुत्री का सम्पत्ति में अधिकतर आदि इस्लाम प्रेरित ही हैं...।
’’ —‘इस्लाम एक स्वयंसिद्ध ईश्वरीय जीवन व्यवस्था’ पृष्ठ 40,42,52 से उद्धृत साहित्य सौरभ, नई दिल्ली, 2007 ई॰

लाला काशी राम चावला
‘‘...न्याय ईश्वर के सबसे बड़े गुणों में से एक अतिआवश्यक गुण है। ईश्वर के न्याय से ही संसार का यह सारा कार्यालय चल रहा है। उसका न्याय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण में काम कर रहा है। न्याय का शब्दिक अर्थ है एक वस्तु के दो बराबर-बराबर भाग, जो तराज़ू में रखने से एक समान उतरें, उनमें रत्ती भर फ़र्व़$ न हो और व्यावहारतः हम इसका मतलब यह लेते हैं कि जो बात कही जाए या जो काम किया जाए वह सच्चाई पर आधारित हो, उनमें तनिक भी पक्षपात या किसी प्रकार की असमानता न हो...।’’ ‘‘...इस्लाम में न्याय को बहुत महत्व दिया गया है और कु़रआन में जगह-जगह मनुष्य को न्याय करने के आदेश मौजूद हैं। इसमें जहाँ गुण संबंधी ईश्वर के विभिन्न नाम आए हैं, वहाँ एक नाम आदिल अर्थात् न्यायकर्ता भी आया है। ईश्वर चूँकि स्वयं न्यायकर्ता है, वह अपने बन्दों से भी न्याय की आशा रखता है। पवित्र क़ुरआन में है कि ईश्वर न्याय की ही बात कहता है और हर बात का निर्णय न्याय के साथ ही करता है...।’’ ‘‘...इस्लाम में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बड़ा बल दिया गया है। परन्तु इसका उद्देश्य यह नहीं है कि पड़ोसी की सहायता करने से पड़ोसी भी समय पर काम आए, अपितु इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया है, इसे आवश्यक क़रार दिया गया है और यह कर्तव्य पड़ोसी ही तक सीमित नहीं है बल्कि किसी साधारण मनुष्य से भी असम्मानजनक व्यवहार न करने की ताकीद की गई है...।’’ ‘‘...निस्सन्देह अन्य धर्मों में हर एक मनुष्य को अपने प्राण की तरह प्यार करना, अपने ही समान समझना, सब की आत्मा में एक ही पवित्र ईश्वर के दर्शन करना आदि लिखा है। किन्तु स्पष्ट रूप से अपने पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने और उसके अत्याचारों को भी धैर्यपूर्वक सहन करने के बारे में जो शिक्षा पैग़म्बरे इस्लाम ने खुले शब्दों में दी है वह कहीं और नहीं पाई जाती...।’’ —
‘इस्लाम, मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म’ पृ॰ 28,41,45 से उद्धृत मधुर सन्देश संगम, नई दिल्ली, 2003 ई॰

पेरियार ई॰ वी॰ रामास्वामी (राज्य सरकार द्वारा पुरस्कृत, द्रविड़ प्रबुद्ध विचारक, पत्रकार, समाजसेवक व नेता, तमिलनाडु)
‘‘...हमारा शूद्र होना एक भयंकर रोग है, यह कैंसर जैसा है। यह अत्यंत पुरानी शिकायत है। इसकी केवल एक ही दवा है, और वह है इस्लाम। इसकी कोई दूसरी दवा नहीं है। अन्यथा हम इसे झेलेंगे, इसे भूलने के लिए नींद की गोलियाँ लेंगे या इसे दबा कर एक बदबूदार लाश की तरह ढोते रहेंगे। इस रोग को दूर करने के लिए उठ खड़े हों और इन्सानों की तरह सम्मानपूर्वक आगे बढ़ें कि केवल इस्लाम ही एक रास्ता है...।’’ ‘‘...अरबी भाषा में इस्लाम का अर्थ है शान्ति, आत्म-समर्पण या निष्ठापूर्ण भक्ति। इस्लाम का मतलब है सार्वजनिक भाईचारा, बस यही इस्लाम है। सौ या दो सौ वर्ष पुराना तमिल शब्द-कोष देखें। तमिल भाषा में कदावुल देवता (Kadavul) का अर्थ है एक ईश्वर, निराकार, शान्ति, एकता, आध्यात्मिक समर्पण एवं भक्ति। ‘कदावुल’ (Kadavul) द्रविड़ शब्द है। अंग्रेज़ी भाषा का शब्द गॉड (God) अरबी भाषा में ‘अल्लाह’ है। ....भारतीय मुस्लिम इस्लाम की स्थापना करने वाले नहीं बल्कि उसका एक अंश हैं...।’’ ‘‘...मलायाली मोपले (Malayali Mopillas), मिस्री, जापानी, और जर्मन मुस्लिम भी इस्लाम का अंश हैं। मुसलमान एक बड़ा गिरोह है। इन में अफ़्रीक़ी, हब्शी और नेग्रो मुस्लिम भी है। इन सारे लोगों के लिए अल्लाह एक ही है, जिसका न कोई आकार है, न उस जैसा कोई और है, उसके न पत्नी है और न बच्चे, और न ही उसे खाने-पीने की आवश्यकता है।’’ ‘‘...जन्मजात समानता, समान अधिकार, अनुशासन इस्लाम के गुण हैं। अन्तर के कारण यदि हैं तो वे वातावरण, प्रजातियाँ और समय हैं। यही कारण है कि संसार में बसने वाले लगभग साठ करोड़ मुस्लिम एक-दूसरे के लिए जन्मजात भाईचारे की भावना रखते हैं। अतः जगत इस्लाम का विचार आते ही थरथरा उठता है...।’’ ‘‘...इस्लाम की स्थापना क्यों हुई? इसकी स्थापना अनेकेश्वरवाद और जन्मजात असमानताओं को मिटाने के लिए और ‘एक ईश्वर, एक इन्सान’ के सिद्धांत को लागू करने के लिए हुई, जिसमें किसी अंधविश्वास या मूर्ति-पूजा की गुंजाइश नहीं है। इस्लाम इन्सान को विवेकपूर्ण जीवन व्यतीत करने का मार्ग दिखाता है...।’’ ‘‘...इस्लाम की स्थापना बहुदेववाद और जन्म के आधार पर विषमता को समाप्त करने के लिए हुई थी। ‘एक ईश्वर और एक मानवजाति’ के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए हुई थी; सारे अंधविश्वासों और मूर्ति पूजा को ख़त्म करने के लिए और युक्ति-संगत, बुद्धिपूर्ण (Rational) जीवन जीने के लिए नेतृत्व प्रदान करने के लिए इसकी स्थापना हुई थी...।’’
—‘द वे ऑफ सैल्वेशन’ पृ॰ 13,14,21 से उद्धृत (18 मार्च 1947 को तिरुचिनपल्ली में दिया गया भाषण) अमन पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1995 ई॰

डॉ॰ बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर (बैरिस्टर, अध्यक्ष-संविधान निर्मात्री सभा)
‘‘...इस्लाम धर्म सम्पूर्ण एवं सार्वभौमिक धर्म है जो कि अपने सभी अनुयायियों से समानता का व्यवहार करता है (अर्थात् उनको समान समझता है)। यही कारण है कि सात करोड़ अछूत हिन्दू धर्म को छोड़ने के लिए सोच रहे हैं और यही कारण था कि गाँधी जी के पुत्र (हरिलाल) ने भी इस्लाम धर्म ग्रहण किया था। यह तलवार नहीं थी कि इस्लाम धर्म का इतना प्रभाव हुआ बल्कि वास्तव में यह थी सच्चाई और समानता जिसकी इस्लाम शिक्षा देता है...।’’ —
‘दस स्पोक अम्बेडकर’ चौथा खंड—भगवान दास पृष्ठ 144-145 से उद्धृत

कोडिक्कल चेलप्पा (बैरिस्टर, अध्यक्ष-संविधान सभा)
‘‘...मानवजाति के लिए अर्पित, इस्लाम की सेवाएं महान हैं। इसे ठीक से जानने के लिए वर्तमान के बजाय 1400 वर्ष पहले की परिस्थितियों पर दृष्टि डालनी चाहिए, तभी इस्लाम और उसकी महान सेवाओं का एहसास किया जा सकता है। लोग शिक्षा, ज्ञान और संस्कृति में उन्नत नहीं थे। साइंस और खगोल विज्ञान का नाम भी नहीं जानते थे। संसार के एक हिस्से के लोग, दूसरे हिस्से के लोगों के बारे में जानते न थे। वह युग ‘अंधकार युग’ (Dark-Age) कहलाता है, जो सभ्यता की कमी, बर्बरता और अन्याय का दौर था, उस समय के अरबवासी घोर अंधविश्वास में डूबे हुए थे। ऐसे ज़माने में, अरब मरुस्थलदृजो विश्व के मध्य में है—में (पैग़म्बर) मुहम्मद पैदा हुए।’’ पैग़म्बर मुहम्मद ने पूरे विश्व को आह्वान दिया कि ‘‘ईश्वर ‘एक’ है और सारे इन्सान बराबर हैं।’’ (इस एलान पर) स्वयं उनके अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और नगरवासियों ने उनका विरोध किया और उन्हें सताया।’’ ‘‘पैग़म्बर मुहम्मद हर सतह पर और राजनीति, अर्थ, प्रशासन, न्याय, वाणिज्य, विज्ञान, कला, संस्कृति और समाजोद्धार में सफल हुए और एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक, स्पेन से चीन तक एक महान, अद्वितीय संसार की संरचना करने में सफलता प्राप्त कर ली। इस्लाम का अर्थ है ‘शान्ति का धर्म’। इस्लाम का अर्थ ‘ईश्वर के विधान का आज्ञापालन’ भी है। जो व्यक्ति शान्ति-प्रेमी हो और क़ुरआन में अवतरित ‘ईश्वरीय विधान’ का अनुगामी हो, ‘मुस्लिम’ कहलाता है। क़ुरआन सिर्फ ‘एकेश्वरत्व’ और ‘मानव-समानता’ की ही शिक्षा नहीं देता बल्कि आपसी भाईचारा, प्रेम, धैर्य और आत्म-विश्वास का भी आह्नान करता है। इस्लाम के सिद्धांत और व्यावहारिक कर्म वैश्वीय शान्ति व बंधुत्व को समाहित करते हैं और अपने अनुयायियों में एक गहरे रिश्ते की भावना को क्रियान्वित करते हैं। यद्यपि कुछ अन्य धर्म भी मानव-अधिकार व सम्मान की बात करते हैं, पर वे आदमी को, आदमी को गु़लाम बनाने से या वर्ण व वंश के आधार पर, दूसरों पर अपनी महानता व वर्चस्व का दावा करने से रोक न सके। लेकिन इस्लाम का पवित्रा ग्रंथ स्पष्ट रूप से कहता है कि किसी इन्सान को दूसरे इन्सान की पूजा करनी, दूसरे के सामने झुकना, माथा टेकना नहीं चाहिए। हर व्यक्ति के अन्दर क़ुरआन द्वारा दी गई यह भावना बहुत गहराई तक जम जाती है। किसी के भी, ईश्वर के अलावा किसी और के सामने माथा न टेकने की भावना व विचारधारा, ऐसे बंधनों को चकना चूर कर देती है जो इन्सानों को ऊँच-नीच और उच्च-तुच्छ के वर्गों में बाँटते हैं और इन्सानों की बुद्धि-विवेक को गु़लाम बनाकर सोचने-समझने की स्वतंत्रता का हनन करते हैं। बराबरी और आज़ादी पाने के बाद एक व्यक्ति एक परिपूर्ण, सम्मानित मानव बनकर, बस इतनी-सी बात पर समाज में सिर उठाकर चलने लगता है कि उसका ‘झुकना’ सिपऱ्$ अल्लाह के सामने होता है। बेहतरीन मौगनाकार्टा (Magna Carta) जिसे मानवजाति ने पहले कभी नहीं देखा था, ‘पवित्र क़ुरआन’ है। मानवजाति के उद्धार के लिए पैग़म्बर मुहम्मद द्वारा लाया गया धर्म एक महासागर की तरह है। जिस तरह नदियाँ और नहरें सागर-जल में मिलकर एक समान, अर्थात सागर-जल बन जाती हैं उसी तरह हर जाति और वंश में पैदा होने वाले इन्सान—वे जो भी भाषा बोलते हों, उनकी चमड़ी का जो भी रंग हो—इस्लाम ग्रहण करके, सारे भेदभाव मिटाकर और मुस्लिम बनकर ‘एक’ समुदाय (उम्मत), एक अजेय शक्ति बन जाते हैं।’’ ‘‘ईश्वर की सृष्टि में सारे मानव एक समान हैं। सब एक ख़ुदा के दास और अन्य किसी के दास नहीं होतेदृचाहे उनकी राष्ट्रीयता और वंश कुछ भी हो, वह ग़रीब हों या धनवान। ‘‘वह सिर्फ़ ख़ुदा है जिसने सब को बनाया है।’’ ईश्वर की नेमतें तमाम इन्सानों के हित के लिए हैं। उसने अपनी असीम, अपार कृपा से हवा, पानी, आग, और चाँद व सूरज (की रोशनी तथा ऊर्जा) सारे इन्सानों को दिया है। खाने, सोने, बोलने, सुनने, जीने और मरने के मामले में उसने सारे इन्सानों को एक जैसा बनाया है। हर एक की रगों में एक (जैसा) ही ख़ून प्रवाहित रहता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी इन्सान एक ही माता-पिता—आदम और हव्वा—की संतान हैं अतः उनकी नस्ल एक ही है, वे सब एक ही समुदाय हैं। यह है इस्लाम की स्पष्ट नीति। फिर एक के दूसरे पर वर्चस्व व बड़प्पन के दावे का प्रश्न कहाँ उठता है? इस्लाम ऐसे दावों का स्पष्ट रूप में खंडन करता है। अलबत्ता, इस्लाम इन्सानों में एक अन्तर अवश्य करता है—‘अच्छे’ इन्सान और ‘बुरे’ इन्सान का अन्तर; अर्थात्, जो लोग ख़ुदा से डरते हैं, और जो नहीं डरते, उनमें अन्तर। इस्लाम एलान करता है कि ईशपरायण व्यक्ति वस्तुतः महान, सज्जन और आदरणीय है। दरअस्ल इसी अन्तर को बुद्धि-विवेक की स्वीकृति भी प्राप्त है। और सभी बुद्धिमान, विवेकशील मनुष्य इस अन्तर को स्वीकार करते हैं। इस्लाम किसी भी जाति, वंश पर आधारित भेदभाव को बुद्धि के विपरीत और अनुचित क़रार देकर रद्द कर देता है। इस्लाम ऐसे भेदभाव के उन्मूलन का आह्वान करता है।’’ ‘‘वर्ण, भाषा, राष्ट्र, रंग और राष्ट्रवाद की अवधारणाएँ बहुत सारे तनाव, झगड़ों और आक्रमणों का स्रोत बनती हैं। इस्लाम ऐसी तुच्छ, तंग और पथभ्रष्ट अवधारणाओं को ध्वस्त कर देता है।’’ —
‘लेट् अस मार्च टुवर्ड्स इस्लाम’ पृष्ठ 26-29, 34-35 से उद्धृत इस्लामिया एलाकिया पानमनानी, मैलदुतुराइ, तमिलनाडु, 1990 ई॰ (श्री कोडिक्कल चेलप्पा ने बाद में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था)










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