Thursday, February 28, 2019

Thoughts of famous Indian non-Muslim scholars about Islam इस्लाम के बारे में भारतीय ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों के विचार

इस्लाम के बारे में भारतीय ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों के विचार
In the Name of Allah the Most Gracious,
the Most MercifulThe following are some old and recent quotations from non-Muslim public figures from the eastern and western world, about Muhammad, may Allah bless him and grant him peace, the Messenger to entire humanity.

स्वामी विवेकानंद (विश्व-विख्यात धर्मविद्) ‘‘...
मुहम्मद (इन्सानी) बराबरी, इन्सानी भाईचारे और तमाम मुसलमानों के भाईचारे के पैग़म्बर थे। ...जैसे ही कोई व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करता है पूरा इस्लाम बिना किसी भेदभाव के उसका खुली बाहों से स्वागत करता है, जबकि कोई दूसरा धर्म ऐसा नहीं करता। ...हमारा अनुभव है कि यदि किसी धर्म के अनुयायियों ने इस (इन्सानी) बराबरी को दिन-प्रतिदिन के जीवन में व्यावहारिक स्तर पर बरता है तो वे इस्लाम और सिर्फ़ इस्लाम के अनुयायी हैं। ...मुहम्मद ने अपने जीवन-आचरण से यह बात सिद्ध कर दी कि मुसलमानों में भरपूर बराबरी और भाईचारा है। यहाँ वर्ण, नस्ल, रंग या लिंग (के भेद) का कोई प्रश्न ही नहीं। ...इसलिए हमारा पक्का विश्वास है कि व्यावहारिक इस्लाम की मदद लिए बिना वेदांती सिद्धांत—चाहे वे कितने ही उत्तम और अद्भुत हों—विशाल मानव-जाति के लिए मूल्यहीन (Valueless) हैं...।’’ —‘टीचिंग्स ऑफ विवेकानंद, पृष्ठ-214, 215, 217, 218) अद्वैत आश्रम, कोलकाता-2004

स्वामी विवेकानंद (विश्व-विख्यात धर्मविद्)
‘‘...मुहम्मद (इन्सानी) बराबरी, इन्सानी भाईचारे और तमाम मुसलमानों के भाईचारे के पैग़म्बर थे। ...जैसे ही कोई व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करता है पूरा इस्लाम बिना किसी भेदभाव के उसका खुली बाहों से स्वागत करता है, जबकि कोई दूसरा धर्म ऐसा नहीं करता। ...हमारा अनुभव है कि यदि किसी धर्म के अनुयायियों ने इस (इन्सानी) बराबरी को दिन-प्रतिदिन के जीवन में व्यावहारिक स्तर पर बरता है तो वे इस्लाम और सिर्फ़ इस्लाम के अनुयायी हैं। ...मुहम्मद ने अपने जीवन-आचरण से यह बात सिद्ध कर दी कि मुसलमानों में भरपूर बराबरी और भाईचारा है। यहाँ वर्ण, नस्ल, रंग या लिंग (के भेद) का कोई प्रश्न ही नहीं। ...इसलिए हमारा पक्का विश्वास है कि व्यावहारिक इस्लाम की मदद लिए बिना वेदांती सिद्धांत—चाहे वे कितने ही उत्तम और अद्भुत हों—विशाल मानव-जाति के लिए मूल्यहीन (Valueless) हैं...।’’ —‘टीचिंग्स ऑफ विवेकानंद, पृष्ठ-214, 215, 217, 218) अद्वैत आश्रम, कोलकाता-2004

मुंशी प्रेमचंद (प्रसिद्ध साहित्यकार)
‘‘...जहाँ तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को इतनी महानता नहीं दी जितनी इस्लाम ने। ...इस्लाम की बुनियाद न्याय पर रखी गई है। वहाँ राजा और रंक, अमीर और ग़रीब, बादशाह और फ़क़ीर के लिए ‘केवल एक’ न्याय है। किसी के साथ रियायत नहीं किसी का पक्षपात नहीं। ऐसी सैकड़ों रिवायतें पेश की जा सकती है जहाँ बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली आधिकारियों के मुक़ाबले में न्याय के बल से विजय पाई है। ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं जहाँ बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेगम, यहाँ तक कि स्वयं अपने तक को न्याय की वेदी पर होम कर दिया है। संसार की किसी सभ्य से सभ्य जाति की न्याय-नीति की, इस्लामी न्याय-नीति से तुलना कीजिए, आप इस्लाम का पल्ला झुका हुआ पाएँगे...।’’ ‘‘...जिन दिनों इस्लाम का झंडा कटक से लेकर डेन्युष तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फ़हराता था मुसलमान बादशाहों की धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी (समकक्ष) नहीं रखती थी। बड़े से बड़े राज्यपदों पर ग़ैर-मुस्लिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी, महाविद्यालयों के कुलपति तक ईसाई और यहूदी होते थे...।’’ ‘‘...यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस (समता) के विषय में इस्लाम ने अन्य सभी सभ्यताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वे सिद्धांत जिनका श्रेय अब कार्ल मार्क्स और रूसो को दिया जा रहा है वास्तव में अरब के मरुस्थल में प्रसूत हुए थे और उनका जन्मदाता अरब का वह उम्मी (अनपढ़, निरक्षर व्यक्ति) था जिसका नाम मुहम्मद (सल्ल॰) है। मुहम्मद (सल्ल॰) के सिवाय संसार में और कौन धर्म प्रणेता हुआ है जिसने ख़ुदा के सिवाय किसी मनुष्य के सामने सिर झुकाना गुनाह ठहराया है...?’’ ‘‘...कोमल वर्ग के साथ तो इस्लाम ने जो सलूक किए हैं उनको देखते हुए अन्य समाजों का व्यवहार पाशविक जान पड़ता है। किस समाज में स्त्रियों का जायदाद पर इतना हक़ माना गया है जितना इस्लाम में? ...हमारे विचार में वही सभ्यता श्रेष्ठ होने का दावा कर सकती है जो व्यक्ति को अधिक से अधिक उठने का अवसर दे। इस लिहाज़ से भी इस्लामी सभ्यता को कोई दूषित नहीं ठहरा सकता।’’ ‘‘...हज़रत (मुहम्मद सल्ल॰) ने फ़रमाया—कोई मनुष्य उस वक़्त तक मोमिन (सच्चा मुस्लिम) नहीं हो सकता जब तक वह अपने भाई-बन्दों के लिए भी वही न चाहे जितना वह अपने लिए चाहता है। ...जो प्राणी दूसरों का उपकार नहीं करता ख़ुदा उससे ख़ुश नहीं होता। उनका यह कथन सोने के अक्षरों में लिखे जाने योग्य है—‘‘ईश्वर की समस्त सृष्टि उसका परिवार है वही प्राणी ईश्वर का (सच्चा) भक्त है जो ख़ुदा के बन्दों के साथ नेकी करता है।’’ ...अगर तुम्हें ख़ुदा की बन्दगी करनी है तो पहले उसके बन्दों से मुहब्बत करो।’’ ‘‘...सूद (ब्याज) की पद्धति ने संसार में जितने अनर्थ किए हैं और कर रही है वह किसी से छिपे नहीं है। इस्लाम वह अकेला धर्म है जिसने सूद को हराम (अवैध) ठहराया है...।’’
—‘इस्लामी सभ्यता’ साप्ताहिक प्रताप विशेषांक दिसम्बर 1925


रामधारी सिंह दिनकर
(प्रसिद्ध साहित्यकार और इतिहासकार) जब इस्लाम आया, उसे देश में फैलने से देर नहीं लगी। तलवार के भय अथवा पद के लोभ से तो बहुत थोड़े ही लोग मुसलमान हुए, ज़्यादा तो ऐसे ही थे जिन्होंने इस्लाम का वरण स्वेच्छा से किया। बंगाल, कश्मीर और पंजाब में गाँव-के-गाँव एक साथ मुसलमान बनाने के लिए किसी ख़ास आयोजन की आवश्यकता नहीं हुई। ...मुहम्मद साहब ने जिस धर्म का उपदेश दिया वह अत्यंत सरल और सबके लिए सुलभ धर्म था। अतएव जनता उसकी ओर उत्साह से बढ़ी। ख़ास करके, आरंभ से ही उन्होंने इस बात पर काफ़ी ज़ोर दिया कि इस्लाम में दीक्षित हो जाने के बाद, आदमी आदमी के बीच कोई भेद नहीं रह जाता है। इस बराबरी वाले सिद्धांत के कारण इस्लाम की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई और जिस समाज में निम्न स्तर के लोग उच्च स्तर वालों के धार्मिक या सामाजिक अत्याचार से पीड़ित थे उस समाज के निम्न स्तर के लोगों के बीच यह धर्म आसानी से फैल गया...। ‘‘...सबसे पहले इस्लाम का प्रचार नगरों में आरंभ हुआ क्योंकि विजेयता, मुख्यतः नगरों में ही रहते थे...अन्त्यज और निचली जाति के लोगों पर नगरों में सबसे अधिक अत्याचार था। ये लोग प्रायः नगर के भीतर बसने नहीं दिए जाते थे...इस्लाम ने जब उदार आलिंगन के लिए अपनी बाँहें इन अन्त्यजों और ब्राह्मण-पीड़ित जातियों की ओर पढ़ाईं, ये जातियाँ प्रसन्नता से मुसलमान हो गईं। कश्मीर और बंगाल में तो लोग झुंड-के-झुंड मुसलमान हुए। इन्हें किसी ने लाठी से हाँक कर इस्लाम के घेरे में नहीं पहुँचाया, प्रत्युत, ये पहले से ही ब्राह्मण धर्म से चिढ़े हुए थे...जब इस्लाम आया...इन्हें लगा जैसे यह इस्लाम ही उनका अपना धर्म हो। अरब और ईरान के मुसलमान तो यहाँ बहुत कम आए थे। सैकड़े-पच्चानवे तो वे ही लोग हैं जिनके बाप-दादा हिन्दू थे...। ‘‘जिस इस्लाम का प्रवर्त्तन हज़रत मुहम्मद ने किया था...वह धर्म, सचमुच, स्वच्छ धर्म था और उसके अनुयायी सच्चरित्र, दयालु, उदार, ईमानदार थे। उन्होंने मानवता को एक नया संदेश दिया, गिरते हुए लोगों को ऊँचा उठाया और पहले-पहल दुनिया में यह दृष्टांत उपस्थित किया कि धर्म के अन्दर रहने वाले सभी आपस में समान हैं। उन दिनों इस्लाम ने जो लड़ाइयाँ लड़ीं उनकी विवरण भी मनुष्य के चरित्रा को ऊँचा उठाने वाला है।’’ —
‘संस्कृति के चार अध्याय’ लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994 पृष्ठ-262, 278, 284, 326, 317

अन्नादुराई (डी॰एमके॰ के संस्थापक, भूतपूर्व मुख्यमंत्री तमिलनाडु)
‘‘इस्लाम के सिद्धांतों और धारणाओं की जितनी ज़रूरत छठी शताब्दी में दुनिया को थी, उससे कहीं बढ़कर उनकी ज़रूरत आज दुनिया को है, जो विभिन्न विचारधाराओं की खोज में ठोकरें खा रही है और कहीं भी उसे चैन नहीं मिल सका है। इस्लाम केवल एक धर्म नहीं है, बल्कि वह एक जीवन-सिद्धांत और अति उत्तम जीवन-प्रणाली है। इस जीवन-प्रणाली को दुनिया के कई देश ग्रहण किए हुए हैं। जीवन-संबंधी इस्लामी दृष्टिकोण और इस्लामी जीवन-प्रणाली के हम इतने प्रशंसक क्यों हैं? सिर्फ़ इसलिए कि इस्लामी जीवन-सिद्धांत इन्सान के मन में उत्पन्न होने वाले सभी संदेहों ओर आशंकाओं का जवाब संतोषजनक ढंग से देते हैं। अन्य धर्मों में शिर्व$ (बहुदेववाद) की शिक्षा मौजूद होने से हम जैसे लोग बहुत-सी हानियों का शिकार हुए हैं। शिर्क के रास्तों को बन्द करके इस्लाम इन्सान को बुलन्दी और उच्चता प्रदान करता है और पस्ती और उसके भयंकर परिणामों से मुक्ति दिलाता है। इस्लाम इन्सान को सिद्ध पुरुष और भला मानव बनाता है। ख़ुदा ने जिन बुलन्दियों तक पहुँचने के लिए इन्सान को पैदा किया है, उन बुलन्दियों को पाने और उन तक ऊपर उठने की शक्ति और क्षमता इन्सान के अन्दर इस्लाम के द्वारा पैदा होती है।’’ इस्लाम की एक अन्य ख़ूबी यह है कि उसको जिसने भी अपनाया वह जात-पात के भेदभाव को भूल गया। मुदगुत्तूर (यह तमिलनाडु का एक गाँव है जहाँ ऊँची जात और नीची जात वालों के बीच भयानक दंगे हुए थे।) में एक-दूसरे की गर्दन मारने वाले जब इस्लाम ग्रहण करने लगे तो इस्लाम ने उनको भाई-भाई बना दिया। सारे भेदभाव समाप्त हो गए। नीची जाति के लोग नीचे नहीं रहे, बल्कि सबके सब प्रतिष्ठित और आदरणीय हो गए। सब समान अधिकारों के मालिक होकर बंधुत्व के बंधन में बंध गए। इस्लाम की इस ख़ूबी से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ। बर्नाड शॉ, जो किसी मसले के सारे ही पहलुओं का गहराई के साथ जायज़ा लेने वाले व्यक्ति थे, उन्होंने इस्लाम के उसूलों का विश्लेषण करने के बाद कहा था: ‘‘दुनिया में बाक़ी और क़ायम रहने वाला दीन (धर्म) यदि कोई है तो वह केवल इस्लाम है।’’ आज 1957 ई॰ में जब हम मानव-चिंतन को जागृत करने और जनता को उनकी ख़ुदी से अवगत कराने की थोड़ी-बहुत कोशिश करते हैं तो कितना विरोध होता है। चौदह सौ साल पहले जब नबी (सल्ल॰) ने यह संदेश दिया कि बुतों को ख़ुदा न बनाओ। अनेक ख़ुदाओं को पूजने वालों के बीच खड़े होकर यह ऐलान किया कि बुत तुम्हारे ख़ुदा नहीं हैं। उनके आगे सिर मत झुकाओ। सिर्प़$ एक स्रष्टा ही की उपासना करो। इस ऐलान के लिए कितना साहस चाहिए था, इस संदेश का कितना विरोध हुआ होगा। विरोध के तूफ़ान के बीच पूरी दृढ़ता के साथ आप (सल्ल॰) यह क्रांतिकारी संदेश देते रहे, यह आप (सल्ल॰) की महानता का बहुत बड़ा सुबूत है। इस्लाम अपनी सारी ख़ूबियों और चमक-दमक के साथ हीरे की तरह आज भी मौजूद है। अब इस्लाम के अनुयायियों का यह कर्तव्य है कि वे इस्लाम धर्म को सच्चे रूप में अपनाएँ। इस तरह वे अपने रब की प्रसन्नता और ख़ुशी भी हासिल कर सकते हैं और ग़रीबों और मजबूरों की परेशानी भी हल कर सकते हैं। और मानवता भौतिकी एवं आध्यात्मिक विकास की ओर तीव्र गति से आगे बढ़ सकती है।’’ —
‘मुहम्मद (सल्ल॰) का जीवन-चरित्रा’ पर भाषण 7 अक्टूबर 1957 ई॰

प्रोफ़ेसर के॰ एस॰ रामाकृष्णा राव
(अध्यक्ष, दर्शन-शास्त्र विभाग, राजकीय कन्या विद्यालय मैसूर, कर्नाटक)
‘‘पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षाओं का ही यह व्यावहारिक गुण है, जिसने वैज्ञानिक प्रवृत्ति को जन्म दिया। इन्हीं शिक्षाओं ने नित्य के काम-काज और उन कामों को भी जो सांसारिक काम कहलाते हैं आदर और पवित्राता प्रदान की। क़ुरआन कहता है कि इन्सान को ख़ुदा की इबादत के लिए पैदा किया गया है, लेकिन ‘इबादत’ (पूजा) की उसकी अपनी अलग परिभाषा है। ख़ुदा की इबादत केवल पूजा-पाठ आदि तक सीमित नहीं, बल्कि हर वह कार्य जो अल्लाह के आदेशानुसार उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने तथा मानव-जाति की भलाई के लिए किया जाए इबादत के अंतर्गत आता है। इस्लाम ने पूरे जीवन और उससे संबद्ध सारे मामलों को पावन एवं पवित्र घोषित किया है। शर्त यह है कि उसे ईमानदारी, न्याय और नेकनियती के साथ किया जाए। पवित्र और अपवित्र के बीच चले आ रहे अनुचित भेद को मिटा दिया। क़ुरआन कहता है कि अगर तुम पवित्र और स्वच्छ भोजन खाकर अल्लाह का आभार स्वीकार करो तो यह भी इबादत है। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को खाने का एक लुक़्मा खिलाता है तो यह भी नेकी और भलाई का काम है और अल्लाह के यहाँ वह इसका अच्छा बदला पाएगा। पैग़म्बर की एक और हदीस है—‘‘अगर कोई व्यक्ति अपनी कामना और ख़्वाहिश को पूरा करता है तो उसका भी उसे सवाब मिलेगा। शर्त यह है कि इसके लिए वही तरीक़ा अपनाए जो जायज़ हो।’’ एक साहब जो आपकी बातें सुन रहे थे, आश्चर्य से बोले, ‘‘हे अल्लाह के पैग़म्बर वह तो केवल अपनी इच्छाओं और अपने मन की कामनाओं को पूरा करता है। आपने उत्तर दिया, ‘यदि उसने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अवैध तरीक़ों और साधनों को अपनाया होता तो उसे इसकी सज़ा मिलती, तो फिर जायज़ तरीक़ा अपनाने पर उसे इनाम क्यों नहीं मिलना चाहिए? धर्म की इस नयी धारणा ने कि, ‘धर्म का विषय पूर्णतः अलौकिक जगत के मामलों तक सीमित न रहना चाहिए, बल्कि इसे लौकिक जीवन के उत्थान पर भी ध्यान देना चाहिए; नीति-शास्त्रा और आचार-शास्त्र के नए मूल्यों एवं मान्यताओं को नई दिशा दी। इसने दैनिक जीवन में लोगों के सामान्य आपसी संबंधों पर स्थाई प्रभाव डाला। इसने जनता के लिए गहरी शक्ति का काम किया, इसके अतिरिक्त लोगों के अधिकारों और कर्तव्यों की धारणाओं को सुव्यवस्थित करना और इसका अनपढ़ लोगों और बुद्धिमान दार्शनिकों के लिए समान रूप से ग्रहण करने और व्यवहार में लाने के योग्य होना पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। यहाँ यह बात सतर्कता के साथ दिमाग़ में आ जानी चाहिए कि भले कामों पर ज़ोर देने का अर्थ यह नहीं है कि इसके लिए धार्मिक आस्थाओं की पवित्रता एवं शुद्धता को कु़र्बान किया गया है। ऐसी बहुत-सी विचारधाराएँ हैं, जिनमें या तो व्यावहारिता के महत्व की बलि देकर आस्थाओं ही को सर्वोपरि माना गया है या फिर धर्म की शुद्ध धारणा एवं आस्था की परवाह न करके केवल कर्म को ही महत्व दिया गया है। इनके विपरीत इस्लाम सत्य आस्था एवं सतकर्म (के सामंजस्य) के नियम पर आधारित है। यहाँ साधन भी उतना ही महत्व रखते हैं जितना लक्ष्य। लक्ष्यों को भी वही महत्ता प्राप्त है जो साधनों को प्राप्त है। यह एक जैव इकाई की तरह है, इसके जीवन और विकास का रहस्य इनके आपस में जुड़े रहने में निहित है। अगर ये एक-दूसरे से अलग होते हैं तो ये क्षीण और विनष्ट होकर रहेंगे। इस्लाम में ईमान और अमल को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। सत्य ज्ञान को सत्कर्म में ढल जाना चाहिए। ताकि अच्छे फल प्राप्त हो सवें$। ‘जो लोग ईमान रखते हैं और नेक अमल करते हैं, केवल वे ही स्वर्ग में जा सकेंगे’ यह बात क़ुरआन में कितनी ही बार दोहराई गयी है। इस बात को पचास बार से कम नहीं दोहराया गया है। सोच-विचार और ध्यान पर उभारा अवश्य गया है, लेकिन मात्र ध्यान और सोच-विचार ही लक्ष्य नहीं है। जो लोग केवल ईमान रखें, लेकिन उसके अनुसार कर्म न करें उनका इस्लाम में कोई मक़ाम नहीं है। जो ईमान तो रखें लेकिन कुकर्म भी करें उनका ईमान क्षीण है। ईश्वरीय क़ानून मात्र विचार-पद्धति नहीं, बल्कि वह एक कर्म और प्रयास का क़ानून है। यह दीन (धर्म) लोगों के लिए ज्ञान से कर्म और कर्म से परितोष द्वारा स्थाई एवं शाश्वत उन्नति का मार्ग दिखलाता है। लेकिन वह सच्चा ईमान क्या है, जिससे सत्कर्म का आविर्भाव होता है, जिसके फलस्वरूप पूर्ण परितोष प्राप्त होता है? इस्लाम का बुनियादी सिद्धांत ऐकेश्वरवाद है ‘अल्लाह बस एक ही है, उसके अतिरिक्त कोई इलाह नहीं’ इस्लाम का मूल मंत्र है। इस्लाम की तमाम शिक्षाएँ और कर्म इसी से जुड़े हुए हैं। वह केवल अपने अलौकिक व्यक्तित्व के कारण ही अद्वितीय नहीं, बल्कि अपने दिव्य एवं अलौकिक गुणों एवं क्षमताओं की दृष्टि से भी अनन्य और बेजोड़ है।’’ —
‘मुहम्मद, इस्लाम के पैग़म्बर’ मधुर संदेश संगम, नई दिल्ली, 1990


वेनगताचिल्लम अडियार
जन्म: 16, मई 1938 ● वरिष्ठ तमिल लेखक; न्यूज़ एडीटर: दैनिक ‘मुरासोली’
● तमिलनाडु के 3 मुख्यमंत्रियों के सहायक ● कलाइममानी अवार्ड (विग जेम ऑफ आर्ट्स) तमिलनाडु सरकार; पुरस्कृत 1982 ● 120 उपन्यासों, 13 पुस्तकों, 13 ड्रामों के लेखक ● संस्थापक, पत्रिका ‘नेरोत्तम’ ‘
‘औरत के अधिकारों से अनभिज्ञ अरब समाज में प्यारे नबी (सल्ल॰) ने औरत को मर्द के बराबर दर्जा दिया। औरत का जायदाद और सम्पत्ति में कोई हक़ न था, आप (सल्ल॰) ने विरासत में उसका हक़ नियत किया। औरत के हक़ और अधिकार बताने के लिए क़ुरआन में निर्देश उतारे गए। माँ-बाप और अन्य रिश्तेदारों की जायदाद में औरतों को भी वारिस घोषित किया गया। आज सभ्यता का राग अलापने वाले कई देशों में औरत को न जायदाद का हक़ है न वोट देने का। इंग्लिस्तान में औरत को वोट का अधिकार 1928 ई॰ में पहली बार दिया गया। भारतीय समाज में औरत को जायदाद का हक़ पिछले दिनों में हासिल हुआ। लेकिन हम देखते हैं कि आज से चौदह सौ वर्ष पूर्व ही ये सारे हक़ और अधिकार नबी (सल्ल॰) ने औरतों को प्रदान किए। कितने बड़े उपकारकर्ता हैं आप। आप (सल्ल॰) की शिक्षाओं में औरतों के हक़ पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है। आप (सल्ल॰) ने ताकीद की कि लोग कर्तव्य से ग़ाफ़िल न हों और न्यायसंगत रूप से औरतों के हक़ अदा करते रहें। आप (सल्ल॰) ने यह भी नसीहत की है कि औरत को मारा-पीटा न जाए। औरत के साथ कैसा बर्ताव किया जाए, इस संबंध में नबी (सल्ल॰) की बातों का अवलोकन कीजिए: 1. अपनी पत्नी को मारने वाला अच्छे आचरण का नहीं है। 2. तुममें से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति वह है जो अपनी पत्नी से अच्छा सुलूक करे। 3. औरतों के साथ अच्छे तरीक़े से पेश आने का ख़ुदा हुक्म देता है, क्योंकि वे तुम्हारी माँ, बहन और बेटियाँ हैं। 4. माँ के क़दमों के नीचे जन्नत है। 5. कोई मुसलमान अपनी पत्नी से नफ़रत न करे। अगर उसकी कोई एक आदत बुरी है तो उसकी दूसरी अच्छी आदत को देखकर मर्द को ख़ुश होना चाहिए। 6. अपनी पत्नी के साथ दासी जैसा व्यवहार न करो। उसको मारो भी मत। 7. जब तुम खाओ तो अपनी पत्नी को भी खिलाओ। जब तुम पहनो तो अपनी पत्नी को भी पहनाओ। 8. पत्नी को ताने मत दो। चेहरे पर न मारो। उसका दिल न दुखाओ। उसको छोड़कर न चले जाओ। 9. पत्नी अपने पति के स्थान पर समस्त अधिकारों की मालिक है। 10. अपनी पत्नियों के साथ जो अच्छी तरह बर्ताव करेंगे, वही तुम में सबसे बेहतर हैं। मर्द को किसी भी समय अपनी काम-तृष्णा की ज़रूरत पेश आ सकती है। इसलिए कि उसे क़ुदरत ने हर हाल में हमेशा सहवास के योग्य बनाया है जबकि औरत का मामला इससे भिन्न है। माहवारी के दिनों में, गर्भावस्था में (नौ-दस माह), प्रसव के बाद के कुछ माह औरत इस योग्य नहीं होती कि उसके साथ उसका पति संभोग कर सके। सारे ही मर्दों से यह आशा सही न होगी कि वे बहुत ही संयम और नियंत्रण से काम लेंगे और जब तक उनकी पत्नियाँ इस योग्य नहीं हो जातीं कि वे उनके पास जाएँ, वे काम इच्छा को नियंत्रित रखेंगे। मर्द जायज़ तरीक़े से अपनी ज़रूरत पूरी कर सके, ज़रूरी है कि इसके लिए राहें खोली जाएँ और ऐसी तंगी न रखी जाए कि वह हराम रास्तों पर चलने पर विवश हो। पत्नी तो उसकी एक हो, आशना औरतों की कोई क़ैद न रहे। इससे समाज में जो गन्दगी फैलेगी और जिस तरह आचरण और चरित्रा ख़राब होंगे इसका अनुमान लगाना आपके लिए कुछ मुश्किल नहीं है। व्यभिचार और बदकारी को हराम ठहराकर बहुस्त्रीवाद की क़ानूनी इजाज़त देने वाला बुद्धिसंगत दीन इस्लाम है। एक से अधिक शादियों की मर्यादित रूप में अनुमति देकर वास्तव में इस्लाम ने मर्द और औरत की शारीरिक संरचना, उनकी मानसिक स्थितियों और व्यावहारिक आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा है और इस तरह हमारी दृष्टि में इस्लाम बिल्कुल एक वैज्ञानिक धर्म साबित होता है। यह एक हक़ीक़त है, जिस पर मेरा दृढ़ और अटल विश्वास है। इतिहास में हमें कोई ऐसी घटना नहीं मिलती कि अगर किसी ने इस्लाम क़बूल करने से इन्कार किया तो उसे केवल इस्लाम क़बूल न करने के जुर्म में क़त्ल कर दिया गया हो, लेकिन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच संघर्ष में धर्म की बुनियाद पर बड़े पैमाने पर ख़ून-ख़राबा हुआ। दूर क्यों जाइए, तमिलनाउु के इतिहास ही को देखिए, मदुरै में ज्ञान समुन्द्र के काल में आठ हज़ार समनर मत के अनुयायियों को सूली दी गई, यह हमारा इतिहास है। अरब में प्यारे नबी (सल्ल॰) शासक थे तो वहाँ यहूदी भी आबाद थे और ईसाई भी, लेकिन आप (सल्ल॰) ने उन पर कोई ज़्यादती नहीं की। हिन्दुस्तान में मुस्लिम शासकों के ज़माने में हिन्दू धर्म को अपनाने और उस पर चलने की पूर्ण अनुमति थी। इतिहास गवाह है कि इन शासकों ने मन्दिरों की रक्षा और उनकी देखभाल की है। मुस्लिम फ़ौजकशी अगर इस्लाम को फैलाने के लिए होती तो दिल्ली के मुस्लिम सुल्तान के ख़िलाफ़ मुसलमान बाबर हरगिज़ फ़ौजकशी न करता। मुल्कगीरी उस समय की सर्वमान्य राजनीति थी। मुल्कगीरी का कोई संबंध धर्म के प्रचार से नहीं होता। बहुत सारे मुस्लिम उलमा और सूफ़ी इस्लाम के प्रचार के लिए हिन्दुस्तान आए हैं और उन्होंने अपने तौर पर इस्लाम के प्रचार का काम यहाँ अंजाम दिया, उसका मुस्लिम शासकों से कोई संबंध न था, इसके सबूत में नागोर में दफ़्न हज़रत शाहुल हमीद, अजमेर के शाह मुईनुद्दीन चिश्ती वग़ैरह को पेश किया जा सकता है। इस्लाम अपने उसूलों और अपनी नैतिक शिक्षाओं की दृष्टि से अपने अन्दर बड़ी कशिश रखता है, यही वजह है कि इन्सानों के दिल उसकी तरफ़ स्वतः खिंचे चले आते हैं। फिर ऐसे दीन को अपने प्रचार के लिए तलवार उठाने की आवश्यकता ही कहाँ शेष रहती है? श्री वेनगाताचिल्लम अडियार ने बाद में (6 जून 1987 को) इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। और ‘अब्दुल्लाह अडियार’ नाम रख लिया था। श्री अडियार से प्रभावित होकर जिन लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया उनमें उल्लेखनीय विभूतियाँ हैं : 1) श्री कोडिक्कल चेलप्पा, भूतपूर्व ज़िला सचिव, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (अब ‘कोडिक्कल शेख़ अब्दुल्लाह’) 2) वीरभद्रनम, डॉ॰ अम्बेडकर के सहपाठी (अब ‘मुहम्मद बिलाल’) 3) स्वामी आनन्द भिक्खू—बौद्ध भिक्षु (अब ‘मुजीबुल्लाह’) श्री अब्दुल्लाह अडियार के पिता वन्कटचिल्लम और उनके दो बेटों ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया था। —
‘इस्लाम माय फ़सिनेशन’ एम॰एम॰आई॰ पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 2007


विशम्भर नाथ पाण्डे
भूतपूर्व राज्यपाल, उड़ीसा
क़ुरआन ने मनुष्य के आध्यात्मिक, आर्थिक और राजकाजी जीवन को जिन मौलिक सिद्धांतों पर क़ायम करना चाहा है उनमें लोकतंत्र को बहुत ऊँची जग हदी गई है और समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व-भावना के स्वर्णिम सिद्धांतों को मानव जीवन की बुनियाद ठहराया गया है। क़ुरआन ‘‘तौहीद’’ यानी एकेश्वरवाद को दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई बताता है। वह आदमी की ज़िन्दगी के हर पहलू की बुनियाद इसी सच्चाई पर क़ायम करता है। क़ुरआन का कहना है कि जब कुल सृष्टि का ईश्वर एक है तो लाज़मी तौर पर कुल मानव समाज भी उसी ईश्वर की एकता का एक रूप है। आदमी अपनी बुद्धि और अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ सकता इै। इसलिए आदमी का सबसे पहला कर्तव्य यह है कि ईश्वर की एकता को अपने धर्म-ईमान की बुनियाद बनाए और अपने उस मालिक के सामने, जिसने उसे पैदा किया और दुनिया की नेमतें दीं, सर झुकाए। आदमी की रूहानी ज़िन्दगी का यही सबसे पहला उसूल है। एकेश्वरवाद के सिद्धांत पर ही आधारित क़ुरआन ने दो तरह के कर्तव्य हर आदमी के सामने रखे हैं—एक, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-अल्लाह’ अर्थात ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य कहता है और दूसरे, जिन्हें वह ‘हक़ूक़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति-मानव के कर्तव्य। हक़ू$क़-अल्लाह में नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, आख़रत और देवदूतों (फ़रिश्तों) पर विश्वास जैसी बातें शामिल हैं, जिन्हें हर व्यक्ति देश काल के अनुसार अपने ढंग से पूरा कर सकता है। क़ुरआन ने इन्हें इन्सान के लिए फ़र्ज़ बताया है इसे ही वास्तविक इबादत (ईश्वर पूजा) कहा है। इन कर्तव्यों के पूरा करने से आदमी में रूहानी शक्ति आती है। ‘हक़ू$क़-अल्लाह’ के साथ ही क़ुरआन ने हक़ू$क़-उल-अबाद’ अर्थात मानव के प्रति मानव के कर्तव्य पर भी ज़ोर दिया है और साफ़ कहा है कि अगर हक़ूक़-अल्लाह के पूरा करने में किसी तरह की कमी रह जाए तो ख़ुदा माफ़ कर सकता है, लेकिन अगर हक़ूक़-उल-अबाद के पूरा करने में ज़र्रा बराबर की कमी रह जाए तो ख़ुदा उसे हरगिज़ माफ़ न करेगा। ऐसे आदमी को इस दुनिया और दूसरी दुनिया, दोनों में, ख़िसारा अर्थात् घाटा उठाना होगा। क़ुरआन का यह पहला बुनियादी उसूल हुआ। क़ुरआन का दूसरा उसूल यह है कि हक़ूक़-अल्लाह यानी नमाज़ रोज़ा, ज़कात और हज आदमी के आध्यात्मिक (रूहानी) जीवन और आत्मिक जीवन (Spiritual Life) से संबंध रखते हैं। इसलिए इन्हें ईमान (श्रद्धा), ख़ुलूसे क़ल्ब (शुद्ध हृदय) और बेग़रज़ी (निस्वार्थ भावना) के साथ पूरा करना चाहिए, यानी इनके पूरा करने में अपने लिए कोई निजी या दुनियावी फ़ायदा, ...निगाह में नहीं होनी चाहिए। यह केवल अल्लाह के निकट जाने के लिए और रूहानी शक्ति हासिल करने के लिए हैं ताकि आदमी दीन-धर्म की सीधी राह पर चल सके। अगर इनमें कोई भी स्वार्थ या ख़ुदग़रज़ी आएगी तो इनका वास्तविक उद्देश्य जाता रहेगा और यह व्यर्थ हो जाएँगे। आदमी की समाजी ज़िन्दगी का पहला फ़र्ज़ क़ुरआन में ग़रीबों, लाचारों, दुखियों और पीड़ितों से सहानुभूति और उनकी सहायता करना बताया गया है। क़ुरआन ने इन्सान के समाजी जीवन की बुनियाद ईश्वर की एकता और इन्सानी भाईचारे पर रखी है। क़ुरआन की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि वह इन्सानियत के, मानवता के, टुकड़े नहीं करता। इस्लाम के इन्सानी भाईचारे की परिधि में कुल मानवजाति, कुल इन्सान शामिल हैं और हर व्यक्ति को सदा सबकी अर्थात् आखिल मानवता की भलाई, बेहतरी और कल्याण का ध्येय अपने सामने रखना चाहिए। क़ुरआन का कहना है कि सारा मानव समाज एक कुटुम्ब है। क़ुरआन की कई आयतों में नबियों और पैग़म्बरों को भी भाई शब्द से संबोधित किया गया है। मुहम्मद साहब हर समय की नमाज़ के बाद आमतौर पर यह कहा करते थे—‘‘मैं साक्षी हूँ कि दुनिया के सब आदमी एक-दूसरे के भाई हैं।’’ यह शब्द इतनी गहराई और भावुकता के साथ उनके गले से निकलते थे कि उनकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगते थे। इससे अधिक स्पष्ट और ज़ोरदार शब्दों में मानव-एकता और मानवजाति के एक कुटुम्ब होने का बयान नहीं किया जा सकता। कु़रआन की यह तालीम और इस्लाम के पैग़म्बर की यह मिसाल उन सारे रिवाजों और क़ायदे-क़ानूनों और उन सब क़ौमी, मुल्की, और नसली...गिरोहबन्दियों को एकदम ग़लत और नाजायज़ कर देती है जो एक इन्सान को दूसरे इन्सान से अलग करती हैं और मानव-मानव के बीच भेदभाव और झगड़े पैदा करती हैं। —
‘पैग़म्बर मुहम्मद, कु़रआन और हदीस, इस्लामी दर्शन’ गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली, 1994


तरुण विजय
सम्पादक, हिन्दी साप्ताहिक ‘पाञ्चजन्य’ (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पत्रिका)
‘‘...क्या इससे इन्कार मुम्किन है कि पैग़म्बर मुहम्मद एक ऐसी जीवन-पद्धति बनाने और सुनियोजित करने वाली महान विभूति थे जिसे इस संसार ने पहले कभी नहीं देखा? उन्होंने इतिहास की काया पलट दी और हमारे विश्व के हर क्षेत्र पर प्रभाव डाला। अतः अगर मैं कहूँ कि इस्लाम बुरा है तो इसका मतलब यह हुआ कि दुनिया भर में रहने वाले इस धर्म के अरबों (Billions) अनुयायियों के पास इतनी बुद्धि-विवेक नहीं है कि वे जिस धर्म के लिए जीते-मरते हैं उसी का विश्लेषण और उसकी रूपरेखा का अनुभव कर सवें$। इस धर्म के अनुयायियों ने मानव-जीवन के लगभग सारे क्षेत्रों में बड़ा नाम कमाया और हर किसी से उन्हें सम्मान मिला...।’’ ‘‘हम उन (मुसलमानों) की किताबों का, या पैग़म्बर के जीवन-वृत्तांत का, या उनके विकास व उन्नति के इतिहास का अध्ययन कम ही करते हैं... हममें से कितनों ने तवज्जोह के साथ उस परिस्थिति पर विचार किया है जो मुहम्मद के, पैग़म्बर बनने के समय, 14 शताब्दियों पहले विद्यमान थे और जिनका बेमिसाल, प्रबल मुक़ाबला उन्होंने किया? जिस प्रकार से एक अकेले व्यक्ति के दृढ़ आत्म-बल तथा आयोजन-क्षमता ने हमारी ज़िन्दगियों को प्रभावित किया और समाज में उससे एक निर्णायक परिवर्तन आ गया, वह असाधारण था। फिर भी इसकी गतिशीलता के प्रति हमारा जो अज्ञान है वह हमारे लिए एक ऐसे मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं है जिसे माफ़ नहीं किया जा सकता।’’ ‘‘पैग़म्बर मुहम्मद ने अपने बचपन से ही बड़ी कठिनाइयाँ झेलीं। उनके पिता की मृत्यु, उनके जन्म से पहले ही हो गई और माता की भी, जबकि वह सिर्प़$ छः वर्ष के थे। लेकिन वह बहुत ही बुद्धिमान थे और अक्सर लोग आपसी झगड़े उन्हीं के द्वारा सुलझवाया करते थे। उन्होंने परस्पर युद्धरत क़बीलों के बीच शान्ति स्थापित की और सारे क़बीलों में ‘अल-अमीन’ (विश्वसनीय) कहलाए जाने का सम्मान प्राप्त किया जबकि उनकी आयु मात्रा 35 वर्ष थी। इस्लाम का मूल-अर्थ ‘शान्ति’ था...। शीघ्र ही ऐसे अनेक व्यक्तियों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया, उनमें ज़ैद जैसे गु़लाम (Slave) भी थे, जो सामाजिक न्याय से वंचित थे। मुहम्मद के ख़िलाफ़ तलवारों का निकल आना कुछ आश्चर्यजनक न था, जिसने उन्हें (जन्म-भूमि ‘मक्का’ से) मदीना प्रस्थान करने पर विवश कर दिया और उन्हें जल्द ही 900 की सेना का, जिसमें 700 ऊँट और 300 घोड़े थे मुक़ाबला करना पड़ा। 17 रमज़ान, शुक्रवार के दिन उन्होंने (शत्रु-सेना से) अपने 300 अनुयायियों और 4 घोड़ों (की सेना) के साथ बद्र की लड़ाई लड़ी। बाक़ी वृत्तांत इतिहास का हिस्सा है। शहादत, विजय, अल्लाह की मदद और (अपने) धर्म में अडिग विश्वास!’’ —
आलेख (‘Know thy neighbor, it’s Ramzan’ अंग्रेज़ी दैनिक ‘एशियन एज’, 17 नवम्बर 2003 से उद्धृत

एम॰ एन॰ रॉय संस्थापक-कम्युनिस्ट पार्टी, मैक्सिको कम्युनिस्ट पार्टी, भारत
‘‘इस्लाम के एकेश्वरवाद के प्रति अरब के बद्दुओं के दृढ़ विश्वास ने न केवल क़बीलों के बुतों को ध्वस्त कर दिया बल्कि वे इतिहास में एक ऐसी अजेय शक्ति बनकर उभरे जिसने मानवता को बुतपरस्ती की लानत से छुटकारा दिलाया। ईसाइयों के, संन्यास और चमत्कारों पर भरोसा करने की घातक प्रवृत्ति को झिकझोड़ कर रख दिया और पादरियों और हवारियों (मसीह के साथियों) के पूजा की कुप्रथा से भी छुटकारा दिला दिया।’’ ‘‘सामाजिक बिखराव और आध्यात्मिक बेचैनी के घोर अंधकार वाले वातावरण में अरब के पैग़म्बर की आशावान एवं सशक्त घोषणा आशा की एक प्रज्वलित किरण बनकर उभरी। लाखों लोगों का मन उस नये धर्म की सांसारिक एवं पारलौकिक सफलता की ओर आकर्षित हुआ। इस्लाम के विजयी बिगुल ने सोई हुई निराश ज़िन्दगियों को जगा दिया। मानव-प्रवृ$ति के स्वस्थ रुझान ने उन लोगों में भी हिम्मत पैदा की जो ईसा के प्रतिष्ठित साथियों के पतनशील होने के बाद संसार-विमुखता के अंधविश्वासी कल्पना के शिकार हो चुके थे। वे लोग इस नई आस्था से जुड़ाव महसूस करने लगे। इस्लाम ने उन लोगों को जो अपमान के गढ़े में पड़े हुए थे एक नई सोच प्रदान की। इसलिए जो उथल-पुथल पैदा हुई उससे एक नए समाज का गठन हुआ जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को यह अवसर उपलब्ध था कि वह अपनी स्वाभाविक क्षमताओं के अनुसार आगे बढ़ सके और तरक़्क़ी कर सके। इस्लाम की जोशीली तहरीक और मुस्लिम विजयताओं के उदार रवैयों ने उत्तरी अफ़्रीक़ा की उपजाऊ भूमि में लोगों के कठिन परिश्रम के कारण जल्द ही हरियाली छा गई और लोगों की ख़ुशहाली वापस आ गई...।’’ ‘‘...ईसाइयत के पतन ने एक नये शक्तिशाली धर्म के उदय को ऐतिहासिक ज़रूरत बना दिया था। इस्लाम ने अपने अनुयायियों को एक सुन्दर स्वर्ग की कल्पना ही नहीं दी बल्कि उसने दुनिया को पराजित करने का आह्वान भी किया। इस्लाम ने बताया कि जन्नत की ख़ुशियों भरी ज़िन्दगी इस दुनिया में भी संभव हैं। मुहम्मद ने अपने लोगों को क़ौमी एकता के धागे में ही नहीं पिरोया बल्कि पूरी क़ौम के अन्दर वह भाव और जोश पैदा किया कि वे हर जगह इन्क़िलाब का नारा बुलन्द करे जिसे सुनकर पड़ोसी देशों के शोषित/पीड़ित लोगों ने भी इस्लाम का आगे बढ़कर स्वागत किया। इस्लाम की इस नाटकीय सफलता का कारण आध्यात्मिक भी था, सामाजिक भी था और राजनीतिक भी। इसी बात पर ज़ोर देते हुए गिबन कहता है: ज़रतुश्त की व्यवस्था से अधिक स्वच्छ एवं पारदर्शी और मूसा के क़ानूनों से कहीं अधिक लचीला मुहम्मद का यह धर्म, बुद्धि एवं विवेक से अधिक निकट है। अंधविश्वास और पहेली से इसकी तुलना नहीं की जा सकती जिसने सातवीं शताब्दी में मूसा की शिक्षाओं को बदनुमा बना दिया था...।’’ ‘‘...हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) का धर्म एकेश्वरवाद पर आधारित है और एकेश्वरवाद की आस्था ही उसकी ठोस बुनियाद भी है। इसमें किसी प्रकार के छूट की गुंजाइश नहीं और अपनी इसी विशेषता के कारण वह धर्म का सबसे श्रेष्ठ पैमाना भी बना। दार्शनिक दृष्टिकोण से भी एकेश्वरवाद की कल्पना ही इस धर्म की बुनियाद है। लेकिन एकेश्वरवाद की यह कल्पना भी अनेक प्रकार के अंधविश्वास को जन्म दे सकती है यदि यह दृष्टिकोण सामने न हो कि अल्लाह ने सृष्टि की रचना की है और इस सृष्टि से पहले कुछ नहीं था। प्राचीन दार्शनिक, चाहे वे यूनान के हों या भारत के, उनके यहां सृष्टि की रचना की यह कल्पना नहीं मिलती। यही कारण है कि जो धर्म उस प्राचीन दार्शनिक सोच से प्रभावित थे वे एकेश्वरवाद का नज़रिया क़ायम नहीं कर सके। जिसकी वजह से सभी बड़े-बड़े धर्म, चाहे वह हिन्दू धर्म हो, यहूदियत हो या ईसाइयत, धीरे-धीरे कई ख़ुदाओं को मानने लगे। यही कारण है कि वे सभी धर्म अपनी महानता खो बैठे। क्योंकि कई ख़ुदाओं की कल्पना सृष्टि को ख़ुदा के साथ सम्मिलित कर देती है जिससे ख़ुदा की कल्पना पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। इससे पैदा करने की कल्पना ही समाप्त हो जाती है, इसलिए ख़ुदा की कल्पना भी समाप्त हो जाती है। यदि यह दुनिया अपने आप स्थापित हो सकती है तो यह ज़रूरी नहीं कि उसका कोई रचयिता भी हो और जब उसके अन्दर से पैदा करने की क्षमता समाप्त हो जाती है तो फिर ख़ुदा की भी आवश्यकता नहीं रहती। मुहम्मद का धर्म इस कठिनाई को आसानी से हल कर लेता है। यह ख़ुदा की कल्पना को आरंभिक बुद्धिवादियों की कठिनाइयों से आज़ाद करके यह दावा करता है कि अल्लाह ने ही सृष्टि की रचना की है। इस रचना से पहले कुछ नहीं था। अब अल्लाह अपनी पूरी शान और प्रतिष्ठा के साथ विराजमान हो जाता है। उसके अन्दर इस चीज़ की क्षमता एवं शक्ति है कि न केवल यह कि वह इस सृष्टि की रचना कर सकता है बल्कि अनेक सृष्टि की रचना करने की क्षमता रखता है। यह उसके शक्तिशाली और हैयुल क़ैयूम होने की दलील है। ख़ुदा को इस तरह स्थापित करने और स्थायित्व प्रदान करने की कल्पना ही मुहम्मद कारनामा है। अपने इस कारनामे के कारण ही इतिहास ने उन्हें सबसे स्वच्छ एवं पाक धर्म की बुनियाद रखने वाला मानता है। क्योंकि दूसरे सभी धर्म अपने समस्त भौतिक/प्राभौतिक कल्पनाओं, धार्मिक बारीकियों और दार्शनिक तर्कों/कुतर्कों के कारण न केवल त्रुटिपूर्ण धर्म हैं बल्कि केवल नाम के धर्म हैं...।’’ ‘‘...यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत में मुसलमानों की विजय के समय ऐसे लाखों लोग यहां मौजूद थे जिनके नज़दीक हिन्दू क़ानूनों के प्रति व़फादार रहने का कोई औचित्य नहीं था। और ब्राह्मणों की कट्टर धार्मिकता एवं परम्पराओं की रक्षा उनके नज़दीक निरर्थक थे। ऐसे सभी लोग अपनी हिन्दू विरासत को इस्लाम के समानता के क़ानून के लिए त्यागने को तैयार थे जो उन्हें हर प्रकार की सुरक्षा भी उपलब्ध करा रहा था ताकि वे कट्टर हिन्दुत्ववादियों के अत्याचार से छुटकारा हासिल कर सवें$। फिर भी हैवेल (Havel) इस बात से संतुष्ट नहीं था। हार कर उसने कहा: ‘‘यह इस्लाम का दर्शनशास्त्र नहीं था बल्कि उसकी सामाजिक योजना थी जिसके कारण लाखों लोगों ने इस धर्म को स्वीकार कर लिया। यह बात बिल्कुल सही है कि आम लोग दर्शन से प्रभावित नहीं होते। वे सामाजिक योजनाओं से अधिक प्रभावित होते हैं जो उन्हें मौजूदा ज़िन्दगी से बेहतर ज़िन्दगी की ज़मानत दे रहा था। इस्लाम ने जीवन की ऐसी व्यवस्था दी जो करोड़ों लोगों की ख़ुशी की वजह बना।’’ ‘‘....ईरानी और मुग़ल विजेयताओं के अन्दर वह पारम्परिक उदारता और आज़ादपसन्दी मिलती है जो आरंभिक मुसलमानों की विशेषता थी। केवल यह सच्चाई कि दूर-दराज़ के मुट्ठी भर हमलावर इतने बड़े देश का इतनी लंबी अवधि तक शासक बने रहे और उनके अक़ीदे को लाखों लोगों ने अपनाकर अपना धर्म परिवर्तन कर लिया, यह साबित करने के लिए काफ़ी है कि वे भारतीय समाज की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर रहे थे। भारत में मुस्लिम शक्ति केवल कुछ हमलावरों की बहादुरी के कारण संगठित नहीं हुई थी बल्कि इस्लामी क़ानून के विकासमुखी महत्व और उसके प्रचार के कारण हुई थी। ऐसा हैवेल जैसा मुस्लिम विरोधी इतिहासकार भी मानता है। मुसलमानों की राजनैतिक व्यवस्था का हिन्दू सामाजिक जीवन पर दो तरह का प्रभाव पड़ा। इससे जाति-पाति के शिवं$जे और मज़बूत हुए जिसके कारण उसके विरुद्ध बग़ावत शुरू हो गई। साथ ही निचली और कमज़ोर जातियों के लिए बेहतर जीवन और भविष्य की ज़मानत उन्हें अपना धर्म छोड़कर नया धर्म अपनाने के लिए मजबूर करती रही। इसी की वजह से शूद्र न केवल आज़ाद हुए बल्कि कुछ मामलों में वे ब्राह्मणों के मालिक भी बन गए।’’ —‘हिस्टोरिकल रोल ऑफ इस्लाम ऐन एस्से ऑन इस्लामिक कल्चर’ क्रिटिकल क्वेस्ट पब्लिकेशन कलकत्ता-1939 से उद्धृत

राजेन्द्र नारायण लाल
(एम॰ ए॰ (इतिहास) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
‘‘...संसार के सब धर्मों में इस्लाम की एक विशेषता यह भी है कि इसके विरुद्ध जितना भ्रष्ट प्रचार हुआ किसी अन्य धर्म के विरुद्ध नहीं हुआ । सबसे पहले तो महाईशदूत मुहम्मद साहब की जाति कु़रैश ही ने इस्लाम का विरोध किया और अन्य कई साधनों के साथ भ्रष्ट प्रचार और अत्याचार का साधन अपनाया। यह भी इस्लाम की एक विशेषता ही है कि उसके विरुद्ध जितना प्रचार हुआ वह उतना ही फैलता और उन्नति करता गया तथा यह भी प्रमाण है—इस्लाम के ईश्वरीय सत्य-धर्म होने का। इस्लाम के विरुद्ध जितने प्रकार के प्रचार किए गए हैं और किए जाते हैं उनमें सबसे उग्र यह है कि इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला, यदि ऐसा नहीं है तो संसार में अनेक धर्मों के होते हुए इस्लाम चमत्कारी रूप से संसार में कैसे फैल गया? इस प्रश्न या शंका का संक्षिप्त उत्तर तो यह है कि जिस काल में इस्लाम का उदय हुआ उन धर्मों के आचरणहीन अनुयायियों ने धर्म को भी भ्रष्ट कर दिया था। अतः मानव कल्याण हेतु ईश्वर की इच्छा द्वारा इस्लाम सफल हुआ और संसार में फैला, इसका साक्षी इतिहास है...।’’ ‘‘...इस्लाम को तलवार की शक्ति से प्रसारित होना बताने वाले (लोग) इस तथ्य से अवगत होंगे कि अरब मुसलमानों के ग़ैर-मुस्लिम विजेता तातारियों ने विजय के बाद विजित अरबों का इस्लाम धर्म स्वयं ही स्वीकार कर लिया। ऐसी विचित्र घटना कैसे घट गई? तलवार की शक्ति जो विजेताओं के पास थी वह इस्लाम से विजित क्यों हो गई...?’’ ‘‘...मुसलमानों का अस्तित्व भारत के लिए वरदान ही सिद्ध हुआ। उत्तर और दक्षिण भारत की एकता का श्रेय मुस्लिम साम्राज्य, और केवल मुस्लिम साम्राज्य को ही प्राप्त है। मुसलमानों का समतावाद भी हिन्दुओं को प्रभावित किए बिना नहीं रहा। अधिकतर हिन्दू सुधारक जैसे रामानुज, रामानन्द, नानक, चैतन्य आदि मुस्लिम-भारत की ही देन है। भक्ति आन्दोलन जिसने कट्टरता को बहुत कुछ नियंत्रित किया, सिख धर्म और आर्य समाज जो एकेश्वरवादी और समतावादी हैं, इस्लाम ही के प्रभाव का परिणाम हैं। समता संबंधी और सामाजिक सुधार संबंधी सरकरी क़ानून जैसे अनिवार्य परिस्थिति में तलाक़ और पत्नी और पुत्री का सम्पत्ति में अधिकतर आदि इस्लाम प्रेरित ही हैं...।
’’ —‘इस्लाम एक स्वयंसिद्ध ईश्वरीय जीवन व्यवस्था’ पृष्ठ 40,42,52 से उद्धृत साहित्य सौरभ, नई दिल्ली, 2007 ई॰

लाला काशी राम चावला
‘‘...न्याय ईश्वर के सबसे बड़े गुणों में से एक अतिआवश्यक गुण है। ईश्वर के न्याय से ही संसार का यह सारा कार्यालय चल रहा है। उसका न्याय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण में काम कर रहा है। न्याय का शब्दिक अर्थ है एक वस्तु के दो बराबर-बराबर भाग, जो तराज़ू में रखने से एक समान उतरें, उनमें रत्ती भर फ़र्व़$ न हो और व्यावहारतः हम इसका मतलब यह लेते हैं कि जो बात कही जाए या जो काम किया जाए वह सच्चाई पर आधारित हो, उनमें तनिक भी पक्षपात या किसी प्रकार की असमानता न हो...।’’ ‘‘...इस्लाम में न्याय को बहुत महत्व दिया गया है और कु़रआन में जगह-जगह मनुष्य को न्याय करने के आदेश मौजूद हैं। इसमें जहाँ गुण संबंधी ईश्वर के विभिन्न नाम आए हैं, वहाँ एक नाम आदिल अर्थात् न्यायकर्ता भी आया है। ईश्वर चूँकि स्वयं न्यायकर्ता है, वह अपने बन्दों से भी न्याय की आशा रखता है। पवित्र क़ुरआन में है कि ईश्वर न्याय की ही बात कहता है और हर बात का निर्णय न्याय के साथ ही करता है...।’’ ‘‘...इस्लाम में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बड़ा बल दिया गया है। परन्तु इसका उद्देश्य यह नहीं है कि पड़ोसी की सहायता करने से पड़ोसी भी समय पर काम आए, अपितु इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया है, इसे आवश्यक क़रार दिया गया है और यह कर्तव्य पड़ोसी ही तक सीमित नहीं है बल्कि किसी साधारण मनुष्य से भी असम्मानजनक व्यवहार न करने की ताकीद की गई है...।’’ ‘‘...निस्सन्देह अन्य धर्मों में हर एक मनुष्य को अपने प्राण की तरह प्यार करना, अपने ही समान समझना, सब की आत्मा में एक ही पवित्र ईश्वर के दर्शन करना आदि लिखा है। किन्तु स्पष्ट रूप से अपने पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने और उसके अत्याचारों को भी धैर्यपूर्वक सहन करने के बारे में जो शिक्षा पैग़म्बरे इस्लाम ने खुले शब्दों में दी है वह कहीं और नहीं पाई जाती...।’’ —
‘इस्लाम, मानवतापूर्ण ईश्वरीय धर्म’ पृ॰ 28,41,45 से उद्धृत मधुर सन्देश संगम, नई दिल्ली, 2003 ई॰

पेरियार ई॰ वी॰ रामास्वामी (राज्य सरकार द्वारा पुरस्कृत, द्रविड़ प्रबुद्ध विचारक, पत्रकार, समाजसेवक व नेता, तमिलनाडु)
‘‘...हमारा शूद्र होना एक भयंकर रोग है, यह कैंसर जैसा है। यह अत्यंत पुरानी शिकायत है। इसकी केवल एक ही दवा है, और वह है इस्लाम। इसकी कोई दूसरी दवा नहीं है। अन्यथा हम इसे झेलेंगे, इसे भूलने के लिए नींद की गोलियाँ लेंगे या इसे दबा कर एक बदबूदार लाश की तरह ढोते रहेंगे। इस रोग को दूर करने के लिए उठ खड़े हों और इन्सानों की तरह सम्मानपूर्वक आगे बढ़ें कि केवल इस्लाम ही एक रास्ता है...।’’ ‘‘...अरबी भाषा में इस्लाम का अर्थ है शान्ति, आत्म-समर्पण या निष्ठापूर्ण भक्ति। इस्लाम का मतलब है सार्वजनिक भाईचारा, बस यही इस्लाम है। सौ या दो सौ वर्ष पुराना तमिल शब्द-कोष देखें। तमिल भाषा में कदावुल देवता (Kadavul) का अर्थ है एक ईश्वर, निराकार, शान्ति, एकता, आध्यात्मिक समर्पण एवं भक्ति। ‘कदावुल’ (Kadavul) द्रविड़ शब्द है। अंग्रेज़ी भाषा का शब्द गॉड (God) अरबी भाषा में ‘अल्लाह’ है। ....भारतीय मुस्लिम इस्लाम की स्थापना करने वाले नहीं बल्कि उसका एक अंश हैं...।’’ ‘‘...मलायाली मोपले (Malayali Mopillas), मिस्री, जापानी, और जर्मन मुस्लिम भी इस्लाम का अंश हैं। मुसलमान एक बड़ा गिरोह है। इन में अफ़्रीक़ी, हब्शी और नेग्रो मुस्लिम भी है। इन सारे लोगों के लिए अल्लाह एक ही है, जिसका न कोई आकार है, न उस जैसा कोई और है, उसके न पत्नी है और न बच्चे, और न ही उसे खाने-पीने की आवश्यकता है।’’ ‘‘...जन्मजात समानता, समान अधिकार, अनुशासन इस्लाम के गुण हैं। अन्तर के कारण यदि हैं तो वे वातावरण, प्रजातियाँ और समय हैं। यही कारण है कि संसार में बसने वाले लगभग साठ करोड़ मुस्लिम एक-दूसरे के लिए जन्मजात भाईचारे की भावना रखते हैं। अतः जगत इस्लाम का विचार आते ही थरथरा उठता है...।’’ ‘‘...इस्लाम की स्थापना क्यों हुई? इसकी स्थापना अनेकेश्वरवाद और जन्मजात असमानताओं को मिटाने के लिए और ‘एक ईश्वर, एक इन्सान’ के सिद्धांत को लागू करने के लिए हुई, जिसमें किसी अंधविश्वास या मूर्ति-पूजा की गुंजाइश नहीं है। इस्लाम इन्सान को विवेकपूर्ण जीवन व्यतीत करने का मार्ग दिखाता है...।’’ ‘‘...इस्लाम की स्थापना बहुदेववाद और जन्म के आधार पर विषमता को समाप्त करने के लिए हुई थी। ‘एक ईश्वर और एक मानवजाति’ के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए हुई थी; सारे अंधविश्वासों और मूर्ति पूजा को ख़त्म करने के लिए और युक्ति-संगत, बुद्धिपूर्ण (Rational) जीवन जीने के लिए नेतृत्व प्रदान करने के लिए इसकी स्थापना हुई थी...।’’
—‘द वे ऑफ सैल्वेशन’ पृ॰ 13,14,21 से उद्धृत (18 मार्च 1947 को तिरुचिनपल्ली में दिया गया भाषण) अमन पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1995 ई॰

डॉ॰ बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर (बैरिस्टर, अध्यक्ष-संविधान निर्मात्री सभा)
‘‘...इस्लाम धर्म सम्पूर्ण एवं सार्वभौमिक धर्म है जो कि अपने सभी अनुयायियों से समानता का व्यवहार करता है (अर्थात् उनको समान समझता है)। यही कारण है कि सात करोड़ अछूत हिन्दू धर्म को छोड़ने के लिए सोच रहे हैं और यही कारण था कि गाँधी जी के पुत्र (हरिलाल) ने भी इस्लाम धर्म ग्रहण किया था। यह तलवार नहीं थी कि इस्लाम धर्म का इतना प्रभाव हुआ बल्कि वास्तव में यह थी सच्चाई और समानता जिसकी इस्लाम शिक्षा देता है...।’’ —
‘दस स्पोक अम्बेडकर’ चौथा खंड—भगवान दास पृष्ठ 144-145 से उद्धृत

कोडिक्कल चेलप्पा (बैरिस्टर, अध्यक्ष-संविधान सभा)
‘‘...मानवजाति के लिए अर्पित, इस्लाम की सेवाएं महान हैं। इसे ठीक से जानने के लिए वर्तमान के बजाय 1400 वर्ष पहले की परिस्थितियों पर दृष्टि डालनी चाहिए, तभी इस्लाम और उसकी महान सेवाओं का एहसास किया जा सकता है। लोग शिक्षा, ज्ञान और संस्कृति में उन्नत नहीं थे। साइंस और खगोल विज्ञान का नाम भी नहीं जानते थे। संसार के एक हिस्से के लोग, दूसरे हिस्से के लोगों के बारे में जानते न थे। वह युग ‘अंधकार युग’ (Dark-Age) कहलाता है, जो सभ्यता की कमी, बर्बरता और अन्याय का दौर था, उस समय के अरबवासी घोर अंधविश्वास में डूबे हुए थे। ऐसे ज़माने में, अरब मरुस्थलदृजो विश्व के मध्य में है—में (पैग़म्बर) मुहम्मद पैदा हुए।’’ पैग़म्बर मुहम्मद ने पूरे विश्व को आह्वान दिया कि ‘‘ईश्वर ‘एक’ है और सारे इन्सान बराबर हैं।’’ (इस एलान पर) स्वयं उनके अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और नगरवासियों ने उनका विरोध किया और उन्हें सताया।’’ ‘‘पैग़म्बर मुहम्मद हर सतह पर और राजनीति, अर्थ, प्रशासन, न्याय, वाणिज्य, विज्ञान, कला, संस्कृति और समाजोद्धार में सफल हुए और एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक, स्पेन से चीन तक एक महान, अद्वितीय संसार की संरचना करने में सफलता प्राप्त कर ली। इस्लाम का अर्थ है ‘शान्ति का धर्म’। इस्लाम का अर्थ ‘ईश्वर के विधान का आज्ञापालन’ भी है। जो व्यक्ति शान्ति-प्रेमी हो और क़ुरआन में अवतरित ‘ईश्वरीय विधान’ का अनुगामी हो, ‘मुस्लिम’ कहलाता है। क़ुरआन सिर्फ ‘एकेश्वरत्व’ और ‘मानव-समानता’ की ही शिक्षा नहीं देता बल्कि आपसी भाईचारा, प्रेम, धैर्य और आत्म-विश्वास का भी आह्नान करता है। इस्लाम के सिद्धांत और व्यावहारिक कर्म वैश्वीय शान्ति व बंधुत्व को समाहित करते हैं और अपने अनुयायियों में एक गहरे रिश्ते की भावना को क्रियान्वित करते हैं। यद्यपि कुछ अन्य धर्म भी मानव-अधिकार व सम्मान की बात करते हैं, पर वे आदमी को, आदमी को गु़लाम बनाने से या वर्ण व वंश के आधार पर, दूसरों पर अपनी महानता व वर्चस्व का दावा करने से रोक न सके। लेकिन इस्लाम का पवित्रा ग्रंथ स्पष्ट रूप से कहता है कि किसी इन्सान को दूसरे इन्सान की पूजा करनी, दूसरे के सामने झुकना, माथा टेकना नहीं चाहिए। हर व्यक्ति के अन्दर क़ुरआन द्वारा दी गई यह भावना बहुत गहराई तक जम जाती है। किसी के भी, ईश्वर के अलावा किसी और के सामने माथा न टेकने की भावना व विचारधारा, ऐसे बंधनों को चकना चूर कर देती है जो इन्सानों को ऊँच-नीच और उच्च-तुच्छ के वर्गों में बाँटते हैं और इन्सानों की बुद्धि-विवेक को गु़लाम बनाकर सोचने-समझने की स्वतंत्रता का हनन करते हैं। बराबरी और आज़ादी पाने के बाद एक व्यक्ति एक परिपूर्ण, सम्मानित मानव बनकर, बस इतनी-सी बात पर समाज में सिर उठाकर चलने लगता है कि उसका ‘झुकना’ सिपऱ्$ अल्लाह के सामने होता है। बेहतरीन मौगनाकार्टा (Magna Carta) जिसे मानवजाति ने पहले कभी नहीं देखा था, ‘पवित्र क़ुरआन’ है। मानवजाति के उद्धार के लिए पैग़म्बर मुहम्मद द्वारा लाया गया धर्म एक महासागर की तरह है। जिस तरह नदियाँ और नहरें सागर-जल में मिलकर एक समान, अर्थात सागर-जल बन जाती हैं उसी तरह हर जाति और वंश में पैदा होने वाले इन्सान—वे जो भी भाषा बोलते हों, उनकी चमड़ी का जो भी रंग हो—इस्लाम ग्रहण करके, सारे भेदभाव मिटाकर और मुस्लिम बनकर ‘एक’ समुदाय (उम्मत), एक अजेय शक्ति बन जाते हैं।’’ ‘‘ईश्वर की सृष्टि में सारे मानव एक समान हैं। सब एक ख़ुदा के दास और अन्य किसी के दास नहीं होतेदृचाहे उनकी राष्ट्रीयता और वंश कुछ भी हो, वह ग़रीब हों या धनवान। ‘‘वह सिर्फ़ ख़ुदा है जिसने सब को बनाया है।’’ ईश्वर की नेमतें तमाम इन्सानों के हित के लिए हैं। उसने अपनी असीम, अपार कृपा से हवा, पानी, आग, और चाँद व सूरज (की रोशनी तथा ऊर्जा) सारे इन्सानों को दिया है। खाने, सोने, बोलने, सुनने, जीने और मरने के मामले में उसने सारे इन्सानों को एक जैसा बनाया है। हर एक की रगों में एक (जैसा) ही ख़ून प्रवाहित रहता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी इन्सान एक ही माता-पिता—आदम और हव्वा—की संतान हैं अतः उनकी नस्ल एक ही है, वे सब एक ही समुदाय हैं। यह है इस्लाम की स्पष्ट नीति। फिर एक के दूसरे पर वर्चस्व व बड़प्पन के दावे का प्रश्न कहाँ उठता है? इस्लाम ऐसे दावों का स्पष्ट रूप में खंडन करता है। अलबत्ता, इस्लाम इन्सानों में एक अन्तर अवश्य करता है—‘अच्छे’ इन्सान और ‘बुरे’ इन्सान का अन्तर; अर्थात्, जो लोग ख़ुदा से डरते हैं, और जो नहीं डरते, उनमें अन्तर। इस्लाम एलान करता है कि ईशपरायण व्यक्ति वस्तुतः महान, सज्जन और आदरणीय है। दरअस्ल इसी अन्तर को बुद्धि-विवेक की स्वीकृति भी प्राप्त है। और सभी बुद्धिमान, विवेकशील मनुष्य इस अन्तर को स्वीकार करते हैं। इस्लाम किसी भी जाति, वंश पर आधारित भेदभाव को बुद्धि के विपरीत और अनुचित क़रार देकर रद्द कर देता है। इस्लाम ऐसे भेदभाव के उन्मूलन का आह्वान करता है।’’ ‘‘वर्ण, भाषा, राष्ट्र, रंग और राष्ट्रवाद की अवधारणाएँ बहुत सारे तनाव, झगड़ों और आक्रमणों का स्रोत बनती हैं। इस्लाम ऐसी तुच्छ, तंग और पथभ्रष्ट अवधारणाओं को ध्वस्त कर देता है।’’ —
‘लेट् अस मार्च टुवर्ड्स इस्लाम’ पृष्ठ 26-29, 34-35 से उद्धृत इस्लामिया एलाकिया पानमनानी, मैलदुतुराइ, तमिलनाडु, 1990 ई॰ (श्री कोडिक्कल चेलप्पा ने बाद में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था)










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Tuesday, February 12, 2019

What non-Muslim scholars said about Prophet Muhammed (peace be upon him)

In the Name of Allah the Most Gracious, the Most Merciful
The following are some old and recent quotations from non-Muslim public figures from the eastern and western world, about Muhammad, may Allah bless him and grant him peace, the Messenger to entire humanity.
13 video's
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इस्लाम, मुहम्‍मद और कुरआन पर महापुरूषों के विचार-islam-quran-comments-non-muslims


"I wanted to know the best of the life of the one who hods today an udisputed sway hearts of millions of makind... ...I became more than ever convinced that it was not the sword that won a place for Islam in those days in the scheme of life. It was the rigid simplicity, the utter self-effacement of the prophet, the scrupulous regard for his pledges, his intense devotion to his friends and followers, his intrepidity, his fearlessness, his absolute trust in God and his own mission. These, and not the sword carried everything before them and surmounted every trouble." M.K.Gandhi, YOUNG INDIA, 1924 "
“मैं उस व्यक्ति के जीवन के बारे में जानना चाहता था जो आज लाखों मानव जाति के दिल पर निर्विवाद राज करते है … मैं हमेशा के लिए आश्वस्त हो गया कि उन दिनों जब इस्लाम फैल रहा था तब तलवार के दम पर इंसान के दिलों में जगह नहीं बनाई गई थी। यह सादगी थी, पैगंबर के पूर्ण आत्म-उत्पीड़न प्रतिज्ञाओं के लिए विनम्र सम्मान, उनके मित्रों और अनुयायियों के प्रति उनकी गहरी भक्ति, उनकी निडरता, भगवान में और उनके अपने मिशन में उनका पूर्ण विश्वास था। वो तलवार नहीं हो सकता जो यह सब किया। तलवार उनके बाधा को और बढ़ा देता। जब मैंने II वॉल्यूम (पैगंबर की जीवनी के) को बंद कर दिया, तो मुझे खेद हुआ कि मेरे लिए उस महान जीवन को पढ़ने के लिए और कुछ नहीं था। ”
– महात्मा गांधी


महात्मा गांधी और इस्लाम
1. गाँधी जी ने हरिजन पत्रिका में 1937 में लिखा था
कि, "यदि हमें स्वराज प्राप्त होता है तो हम देश की
शासन प्रणाली हज़रत उमर (द्वितीय ख़लीफा) की
ख़िलाफ़त की तर्ज़ पर चलाएंगे।

2.राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1937 में अपने लेक्चर
में सादगी की जिन्दगी गुजारने का मशवरा देते हुए कहा:
''कि मैं रामचंद्र और कृष्ण का हवाला नहीं दे सकता हूं
क्यूकि वो तारीखी हस्तियां नहीं हैं, मैं मजबूर हूं
सादगी के लिए हजरत अबु बकर रजि. और हजरत उमर
रजि.
का नाम पेश करता हूं, वो बहुत बडी सलतन्त के हाकिम थे
मगर उन्हों ने सादगी की जिन्दगी गुजारी




George Bernard Shaw - The Genuine Islam Vol.No.8, 1936. “I believe if a man like him were to assume the dictatorship of the modern world he would succeed in solving its problems in a way that would bring much needed peace and happiness. I have studied him - the man and in my opinion is far from being an anti–Christ. He must be called the Savior of Humanity. I have prophesied about the faith of Mohammad that it would be acceptable the Europe of tomorrow as it is beginn


Thomas Caryle – Heros and Heros Worship “how one man single-handedly, could weld warring tribes and Bedouins into a most powerful and civilized nation in less than two decades?” “…The lies (Western slander) which well-meaning zeal has heaped round this man (Muhammed) are disgraceful to ourselves only…How one man single-handedly, could weld warring tribes and wandering Bedouins into a most powerful and civilized nation in less than two decades….A silent great soul, one of that who cannot but be earnest. He was to kindle the world; the world’s Maker had ordered so."
प्रसिद्ध अंग्रेज़ लेखक 'थामस कार्लायल'(Thomas Carlyle) अपनी किताब 'हीरोज़' में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बारे में कहताहैः मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम शहवत के पुजारी नहीं थे, जबकि अत्याचार, अन्याय और जि़यादती करते हुए आप पर यह आरोप लगाया गया है। उस समय हम बड़ा अत्याचारऔर भयानक ग़लती करते हैं जब आप को एक शहवत परस्त (कामुक) आदमी समझते हैं, जिसका अपनीइच्छा और लालसा पूरी करने के सिवा कुछ काम न था। कदापि नहीं! उसके और लालसाओं केबीच ज़मीन आसमान का अंतर था।
More हज़रत पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की बीवियाँ

Montgomery Watt, Mohammad at Mecca, Oxford 1953, p. 52: "His readiness to undergo persecutions for his beliefs, the high moral character of the men who believed in him and looked up to him as leader, and the greatness of his ultimate achievement – all argue his fundamental integrity. To suppose Muhammad an impostor raises more problems than it solves. Moreover, none of the great figures of history is so poorly appreciated in the West as Muhammad."


John William Draper Under category : Muhammad in their Eyes 5789 2008/02/24 Options Download article Word format Print Send to a friend Share Compaign "four years after the death of justinian, a.d. 569, was born at mecca, in arabia the man who, of all men exercised the greatest influence upon the human race . . . mohammed . . ." 
_____________________________ john william draper, a history of the intellectual development of europe, london 1875, vol. 1, pp. 329-330.




Lamartine - Histoire de la Turquie, Paris 1854, Vol II, pp. 276-77: "If greatness of purpose, smallness of means, and astounding results are the three criteria of human genius, who could dare to compare any great man in modern history with Muhammad? The most famous men created arms, laws and empires only. They founded, if anything at all, no more than material powers which often crumbled away before their eyes. This man moved not only armies, legislations, empires, peoples and dynasties, but millions of men in one-third of the then inhabited world; and more than that, he moved the altars, the gods, the religions, the ideas, the beliefs and souls... the forbearance in victory, his ambition, which was entirely devoted to one idea and in no manner striving for an empire; his endless prayers, his mystic conversations with God, his death and his triumph after death; all these attest not to an imposture but to a firm conviction which gave him the power to restore a dogma. This dogma was twofold, the unit of God and the immateriality of God; the former telling what God is, the latter telling what God is not; the one overthrowing false gods with the sword, the other starting an idea with words. "Philosopher, orator, apostle, legislator, warrior, conqueror of ideas, restorer of rational dogmas, of a cult without images; the founder of twenty terrestrial empires and of one spiritual empire, that is Muhammad. As regards all standards by which human greatness may be measured, we may well ask, is there any man greater than he?"

> Prophet Muhammad: “Muhammad has always been standing higher than the Christianity. He does not consider god as a human being and never makes himself equal to God. Muslims worship nothing except God and Muhammad is his Messenger. There is no any mystery and secret in it.”
—> Humanity needs Islamic law: “The law of the Qur’an will prevail in the world because it agrees with reason and wisdom. I have come to understand that humanity needs only a Divine law to establish the truth and destroy falsehood. Islamic law will encompass the entire world because it is consistent with reason and agrees with wisdom and justice.”
—> They amazed their surroundings: “It is true that the wide spread of Islam at the hands of those (Muslims) did not appeal to the Buddhists and Christians. However, the indisputably well-established fact is that the Muslims, in the early days of Islam, were recognized for their abstinence in the false world, pure conduct, uprightness and honesty so much that they amazed their surrounding neighbors with their noble manners, mercy and kindness.”
—> The people of vision: “One of the good merits of the Islamic religion is that it enjoins good treatment to Christians and Jews in general and Christian bishops in particular. It commands to deal with them kindly and helpfully and permits its followers among men to marry Christian and Jewish women, who are allowed to remain on their religion – a teaching which implies great toleration not hidden from men of enlightened visions.”
—-> I admire Muhammad: “It suffices Muhammad for pride that he was able to rescue a humiliated and bloody people from the devil of blameworthy habits and opened to them the way of development and progress. I am one of those who admire the Prophet Muhammad, whom God chose to carry His last message and be the last Prophet.”
—> A great work: “Undoubtedly, the Prophet Muhammad is one of the greatest reformers who served the social community. It suffices him for pride that he guided an entire nation to the light of truth, made his people inclined to peace and tranquility and giving preference to an ascetic life, prevented them from bloodshed and offering victims from among mankind and opened to them the way of development and civility. This is indeed a great work which could be done only by a man gifted with power, and such a man is worthy of respect and honor.”
Allah knows best!
It looks like Leo Tolstoy converted to Islam before he died.
A Russian woman who married the Muslim E. Vekilov, wrote to Tolstoy that her sons wanted to convert to Islam, and asked for his advice. This is what the writer answered her: “As far as the preference of Mohammedanism to Orthodoxy is concerned, I can fully sympathize with such conversion. To say this might be strange for me who values the Christian ideals and the teaching of Christ in their pure sense more that anything else, I do not doubt that Islam in its outer form stands higher than the Orthodox Church. Therefore, if a person is given only two choices: to adhere to the Orthodox Church or Islam, any sensible person will not hesitate about his choice, and anyone will prefer Islam with its acceptance of one tenet, single God and His Prophet instead such complex and incomprehensible things in theology as the Trinity, redemption, sacraments, the saints and their images, and complicated services”
Yasnaya Polyana, March, 15th, 1909
We can adduce another letter of his which explains his world outlook which formed as a result of his long painful search for the truth.
“I would be very glad if you were of the same faith with me. Just try to understand what my life is. Any success in life- wealth, honour, glory- I don’t have these. My friends, even my family are turning away from me.
Some- liberals and aesthetes- consider me to be mad or weak- minded like Gogol; others- revolutionaries and radicals- consider me to be a mystic and a man who talks too much; the officials consider me to be a malicious revolutionary; the Orthodox consider me to be a devil.
I confess that it is hard for me. And therefore, please, regard me as a kind Mohammedan, and all will be fine”.
Yasnaya Polyana, April, 1884
https://passtheknowledge.wordpress.com/2015/01/04/quotes-of-leo-tolstoy-about-prophet-muhammad-pbuh-islam/
“मैं इस्लाम के मानव और नैतिक मूल्यों पे मर मिटा हूँ […] जो इस्लाम के साथ लोग अक्सर शेयर करते हैं। हम सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, एक सर्वोच्च व्यक्ति में गहरी विश्वास साझा करते हैं। हम सभी को उनके द्वारा विश्वास, करुणा और न्याय के लिए आदेश दिया जाता है। हमारे पास कानून के लिए एक आम सम्मान है। आधुनिक युग के उपभेदों के बावजूद, हम परिवार और घर पर विशेष महत्व रखना जारी रखते हैं। और हम एक धारणा साझा करते हैं कि आतिथ्य एक गुण है और मेजबान, चाहे कोई राष्ट्र या व्यक्ति हो, मेहमानों के प्रति उदारता और सम्मान के साथ व्यवहार करना चाहिए। मूल्यों और हितों दोनों के आधार पर, इस्लाम और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच प्राकृतिक संबंध दोस्ती में से एक है। मैं दोस्ती की पुष्टि करता हूं कि एक हकीकत और एक लक्ष्य के रूप में […] [और] मजबूत, कमजोर नहीं, संयुक्त राज्य अमेरिका और कई मुस्लिम राष्ट्रों के बीच दोस्ती और सहयोग के दीर्घकालिक और मूल्यवान बंधन को दृढ़ करने के लिए दृढ़ संकल्पित है। ”
– जिमी कार्टर
“कुरान का कानून पूरी दुनिया में फैल जाएगा, क्योंकि यह दिमाग, तर्क और ज्ञान से सहमत है।”
– लियो टॉल्स्टॉय



D. G. Hogarth in 'Arabia' Serious or trivial, his daily behavior has instituted a canon which millions observe this day with conscious memory. No one regarded by any section of the human race as Perfect Man has ever been imitated so minutely. The conduct of the founder of Christianity has not governed the ordinary life of his followers. Moreover, no founder of a religion has left on so solitary an eminence as the Muslim apostle.



The non Muslim scholar, Prof. Ramakrishna Rao, said about the Prophet: 
“The personality of Muhammad, it is most difficult to get into the whole truth of it. Only a glimpse of it I can catch. What a dramatic succession of picturesque scenes! There is Muhammad, the Prophet. There is Muhammad, the Warrior; Muhammad, the Businessman; Muhammad, the Statesman; Muhammad, the Orator; Muhammad, the Reformer; Muhammad, the Refuge of Orphans; Muhammad, the Protector of Slaves; Muhammad, the Emancipator of Women; Muhammad, the Judge; Muhammad, the Saint. All in all these magnificent roles, in all these departments of human activities, he is alike a hero.”  K. S. Ramakrishna Rao in 'Mohammed: The Prophet of Islam,' 1989


Annie Besant, The Life and Teachings of Muhammad, Madras 1932, p. 4: "It is impossible for anyone who studies the life and character of the great Prophet of Arabia, who knows how he taught and how he lived, to feel anything but reverence for that mighty Prophet, one of the great messengers of the Supreme. And although in what I put to you I shall say many things which may be familiar to many, yet I myself feel whenever I re-read them, a new way of admiration, a new sense of reverence for that mighty Arabian teacher."


Sarojini Naidu, the famous Indian poetess says – S. Naidu, Ideals of Islam, Speeches and Writings, Madaras, 1918 “It was the first religion that preached and practiced democracy; for, in the mosque, when the call for prayer is sounded and worshippers are gathered together, the democracy of Islam is embodied five times a day when the peasant and king kneel side by side and proclaim: 'God Alone is Great'... “
“यह पहला धर्म था जिसने लोकतंत्र का प्रचार किया और उसका अभ्यास किया; क्योंकि, मस्जिद में जब इबादत की जाती है और नमाज के लिए लोगों को इकट्ठा किया जाता है, तब इस्लाम का लोकतंत्र दिन में पांच बार अवशोषित होता है जब किसान और राजा एक ही सफ में घुटने टेकते हैं और कहते हैं: ‘God Alone is Great’'(अल्लाह हो अकबर) … ”
– सरोजिनी नायडू



Rev. Bosworth Smith, Mohammed and Mohammadanism, London 1874, p. 92: "He was Caesar and Pope in one; but he was Pope without Pope's pretensions, Caesar without the legions of Caesar: without a standing army, without a bodyguard, without a palace, without a fixed revenue; if ever any man had the right to say that he ruled by the right divine, it was Mohammed, for he had all the power without its instruments and without its supports."




more
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Nepolean Bonaparte – Quoted in Christian Cherfils BONAPARTE ET ISLAM (PARIS  1914)

“I hope the time is not far off when I shall be able to unite all the wise and educated men of all the countries and establish a uniform regime based on the principles of Qur'an which alone are true and which alone can lead men to happiness.”



مورخین کے مطابق اگر بونا پارٹ کو چند ماہ کی مہلت مل جاتی تو وہ سلطان ٹیپوکی مدد کو پہنچ جاتا اور ہندوستان کے ساتھ مل کر وہ فرنگی راج کا خاتمہ کردیتا ۔بونا پارٹ نے کئی یورپی ملکوں کو فتح کرلیا تھا اور بر اعظم افریقہ تک اسکی عملداری ہوگئی جس سے برطانوی سلطنت کو اپنا سورج غروب ہوتا دکھائی دینے لگا تھا۔ انگریزوں نے بونا پارٹ کے خلاف جہاں پروپیگنڈہ سے کام لیکر اسکی شخصیت کو مسخ کیا وہاں جرمنی کے ساتھ اتحاد کرکے بونا پارٹ کے خلاف جنگ چھیڑ دی ۔
https://dailypakistan.com.pk/26-Apr-2018/771459


Did You Kn

Embracing Islam
The practical impact of all this could be seen in Napoleon’s behaviour in Egypt and Syria, which he tried to conquer in the campaign of 1798-9, one of his few major failures. There he sought to learn more about Islam and to support local religious leaders, as long as they did not oppose him.
In 1798, a revolt took place against the French in Cairo. The armed rebels, many based around the Great Mosque, proclaimed their intention to exterminate the French in the name of the Prophet Muhammad. Having put down such a revolt, many commanders would have punished the imams and sheikhs who had inspired this violent religious talk. But Napoleon was careful not to punish them, as they had not taken an active part in the revolt, instead beheading those who had led the action. The message was clear – rebellion was unacceptable, but the French would not harm the holy men of Islam.
Unlike the generals of so many previous Christian armies in the east, Napoleon made clear that his soldiers should not treat Muslims differently from the people of nations they had conquered in Europe. Citing the examples of Alexander the Great and the pagan Roman legions, he instructed them to treat all religions equally and to treat all religious leaders with respect. The crime of rape, common among soldiers in countries they considered barbarous, was singled out for attention, with instructions that any soldier who raped a Muslim woman would be shot.

Attempts to involve local Islamic leaders in running the region were more mixed. On the one hand, he tried to tap into local opinions and authority structures by using advisory councils called diwans. On the other hand, local knowledge was being accessed through hierarchies that were alien to Islam and put French leaders at the top of the power pyramid.ow? Napoleon Was A Serious Admirer Of Islam



मानवता के पुजारी - मुहम्मद / विष्णु प्रभाकर https://wikisource.org/wiki/मानवता_के_पुजारी_-_मुहम्मद_/_विष्णु_प्रभाकर

https://islaminhindi.blogspot.com/2009/12/islam-quran-comments-non-muslims.html

Edward Gibbon and Simon Ocklay  - History of the Saracen Empire, London, 1870, p. 54:

"It is not the propagation but the permanency of his religion that deserves our wonder, the same pure and perfect impression which he engraved at Mecca and Medina is preserved, after the revolutions of twelve centuries by the Indian, the African and the Turkish proselytes of the Koran...The Mahometans have uniformly withstood the temptation of reducing the object of their faith and devotion to a level with the senses and imagination of man. 'I believe in One God and Mahomet the Apostle of God', is the simple and invariable profession of Islam. The intellectual image of the Deity has never been degraded by any visible idol; the honors of the prophet have never transgressed the measure of human virtue, and his living precepts have restrained the gratitude of his disciples within the bounds of reason and religion."
nse of reverence for that mighty Arabian teacher."

James A. Michener, 'Islam: The Misunderstood Religion' in Reader's Digest (American Edition), May 1955, pp. 68-70:

"Muhammad, the inspired man who founded Islam, was born about A.D. 570 into an Arabian tribe that worshipped idols. Orphaned at birth, he was always particularly solicitous of the poor and needy, the widow and the orphan, the slave and the downtrodden. At twenty he was already a successful businessman, and soon became director of camel caravans for a wealthy widow. When he reached twenty-five, his employer, recognizing his merit, proposed marriage. Even though she was fifteen years older, he married her, and as long as she lived, remained a devoted husband.
"Like almost every major prophet before him, Muhammad fought shy of serving as the transmitter of God's word, sensing his own inadequacy. But the angel commanded 'Read'. So far as we know, Muhammad was unable to read or write, but he began to dictate those inspired words which would soon revolutionize a large segment of the earth: "There is one God."
"In all things Muhammad was profoundly practical. When his beloved son Ibrahim died, an eclipse occurred, and rumors of God's personal condolence quickly arose. Whereupon Muhammad is said to have announced, 'An eclipse is a phenomenon of nature. It is foolish to attribute such things to the death or birth of a human-being.'
"At Muhammad's own death an attempt was made to deify him, but the man who was to become his administrative successor killed the hysteria with one of the noblest speeches in religious history: 'If there are any among you who worshipped Muhammad, he is dead. But if it is God you worshipped, He lives forever.'"

Michael H. Hart, The 100: A Ranking of the Most Influential Persons in History, New York: Hart Publishing Company, Inc. 1978, p. 33:

"My choice of Muhammad to lead the list of the world's most influential persons may surprise some readers and may be questioned by others, but he was the only man in history who was supremely successful on both the religious and secular level."

Michael Hart in 'The 100, A Ranking of the Most Influential Persons In History,' New York, 1978. My choice of Muhammad to lead the list of the world’s most influential persons may surprise some readers and may be questioned by others, but he was the only man in history who was supremely successful on both the secular and religious level. ...It is probable that the relative influence of Muhammad on Islam has been larger than the combined influence of Jesus Christ and St. Paul on Christianity. ...It is this unparalleled combination of secular and religious influence which I feel entitles Muhammad to be considered the most influential single figure in human history.

Dr . moris bokale

Stanley Lane-Poole – Table Talk of the Prophet

“He was the most faithful protector of those he protected, the sweetest and most agreeable in conversation. Those who saw him were suddenly filled with reverence; those who came near him loved him; they who described him would say, "I have never seen his like either before or after." He was of great taciturnity, but when he spoke it was with emphasis and deliberation, and no one could forget what he said...”

it is beginn

Diwan Chand Sharma U
nder category : Muhammad in their Eyes 6208 2008/02/24 Options Download article Word format Print Send to a friend Share Compaign 
"muhammad was the soul of kindness, and his influence was felt and never forgotten by those around him." ____________________________________ (d.c. sharma, the prophets of the east, calcutta, 1935, pp. 12)
Muhammad in their Eyes 
https://rasoulallah.net/en/articles/category/380
http://www.cyberistan.org/islamic/quote1.html
https://gainpeace.com/index.php?option=com_content&view=article&id=63:what-non-muslim-scholars-said-about-prophet-muhammed-peace-be-upon-him&catid=41&Itemid=105



इस्लाम पर 10 महान गैर मुस्लिमों का "कोट" जिसे आपको पढ़ने की जरूरत है
https://m.dailyhunt.in/news/india/hindi/the+siaset+daily+hindi-epaper-siasethi/islam+par+10+mahan+gair+muslimo+ka+kot+jise+aapako+padhane+ki+jarurat+hai-newsid-90069000

“इस्लामी शिक्षाओं ने न्यायसंगत और जेंटल डीलिंग और व्यवहार के लिए महान परंपराओं को छोड़ दिया है, और कुलीनता और सहिष्णुता वाले लोगों को प्रेरित किया है। ये उच्चतम आदेश की मानव शिक्षाएं हैं और साथ ही व्यावहारिक भी हैं। इन शिक्षाओं ने एक समाज को अस्तित्व में लाया जिसमें कठोर दिल और सामूहिक उत्पीड़न और अन्याय कम से कम अन्य सभी समाजों की तुलना में कम थे … इस्लाम नम्रता, सौजन्य और बंधुता से भरा हुआ है। ”
– एचजी वेल्स
“इस्लाम सफलता का धर्म है। जिसकी मुख्य छवि ईसाई धर्म के विपरीत है, पश्चिम में कम से कम, एक आदमी एक विनाशकारी, अपमानजनक, असहाय मौत में मर रहा है … मोहम्मद एक स्पष्ट विफलता नहीं थी। वह राजनीतिक और आध्यात्मिक रूप से एक चमकदार सफलता थी, और इस्लाम मजबूती से शक्ति के अंत बिंदु तक चला गया। ”
– करेन आर्मस्ट्रांग

"… 11 सितंबर के बाद से, कई अवसरों में मैं हमेशा इस्लाम की रक्षा के साथ आगे आ जाता हूं। इस्लाम किसी भी अन्य प्रमुख परंपरा की तरह है। मुझे लगता है कि अल्लाह की बहुत प्रशंसा का मतलब प्यार, अनंत प्रेम और करुणा है उस तरह है। मैं इस्लाम को समझता हूं, वे आमतौर पर तस्वीह लेते हैं जो सभी 99 मोती के होते हैं। जो अल्लाह के अलग-अलग नाम हैं। सभी करुणा, या उन सकारात्मक चीजों का उल्लेख करते हैं। ”
– दलाई लामा
“इस्लाम मेरे देश में लाखों लोगों और दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोगों के लिए आशा और सुकून लाता है। रमजान यह याद रखने का अवसर है कि इस्लाम ने इसके द्वारा सीखने की समृद्ध सभ्यता को जन्म दिया जिसने मानव जाति को लाभान्वित किया है। ”
– जॉर्ज डब्ल्यू बुश
“इस्लाम का सूफीवाद प्यारा है… जो मानव आत्मा की दिव्यता है…और जो हमारे आध्यात्मिक दिल में गॉड के साथ सीधा संबंध बनाता है … मुझे सभी धर्मों का सम्मान है। सभी धर्म, लेकिन मैं जो बात कर रही हूं वह विश्वास या धर्म नहीं है। मैं आध्यात्मिकता के बारे में बात कर रही हूं। ”
– ओपरा विनफ्रे
“… मुस्लिमों की धार्मिकता सम्मान का हकदार है। प्रशंसा करना असंभव है, उदाहरण के लिए, प्रार्थना या इबादत के लिए उनकी निष्ठा। अल्लाह में विश्वासियों की छवि, जो समय या स्थान की परवाह किए बिना, अपने घुटनों पर आ आते हैं और इबादत में विसर्जित हो जाते हैं उन सभी के लिए ये एक आदर्श है जो सच्चे गॉड का आह्वान करते हैं, खासतौर पर उन ईसाइयों के लिए, जिन्होंने अपने शानदार कैथेड्रल को त्याग दिया है, जो प्रार्थना करते हैं केवल थोड़ा या बिल्कुल नहीं। ”
– पोप जॉन पॉल द्वितीय
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गै़र-मुस्लिम विद्वानों की नज़र में

पैगम्बरे-इस्लाम महात्मा गॉधी के विचारों में

पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के विषय में गॉधी जी के विचार इस प्रकार हैं-
    ‘‘ इस्लाम अपने अति विशाल युग में भी अनुदार नही था, बल्कि सारा संसार उसकी प्रशंसा कर रहा था। उस समय, जबकि पश्चिमी दुनिया अन्धकारमय थी, पूर्व क्षितिज का एक उज्जवल सितारा चमका, जिससे विकल संसार को प्रकाश और शान्ति प्राप्त हुर्इ। इस्लाम झूठा मजहब नही हैं। हिन्दुओं को भी इसका उसी तरह अध्ययन करना चाहिए, जिस तरह मैने किया हैं। फिर वे भी मेरे ही समान इससे प्रेम करने लगेंगे।
मै पैगम्बरे-इस्लाम की जीचनी का अध्ययन कर रहा था। जब मैने किताब का दूसरा भाग भी खत्म कर लिया, तो मुझे दुख हुआ  िकइस महान प्रतिभाशाली जीवन का अध्ययन करने के लिए अब मेरे पास कोर्इ और किताब बाकी नही। अब मुझे पहले से भी ज्यादा विश्वास हो गया हैं कि यह तलवार की शक्ति न थी, जिसने इस्लाम के लिए विश्पक्षेत्र में विजय प्राप्त की, बल्कि यह इस्लाम के पैगम्बर का अत्यन्त सादा जीवन, आपकी नि:स्वार्थता, प्रतिज्ञा-पालन और निर्भयता थी। यह आपका अपने मित्रों और अनुयायियों से प्रेम करना और र्इश्वर पर भरोसा रखना था। यह तलवार की शक्ति नही थी, बल्कि वे विशेषताएॅ और गुण थें, जिनसे सारी बाधाएॅ दूर हो गर्इ और आप (सल्ल0) ने समस्त कठिनार्इयों पर विजय प्राप्त कर ली।
मुझसे किसी ने कहा था कि दक्षिणी अफरीका में जो यूरोपियन आबाद हैं, इस्लाम के प्रचार से कॉप रहे हैं, उसी इस्लाम से जिसने मराकों में रौशनी फलार्इ और संसार वासियों को भार्इ-भार्इ बन जाने का सुखद-संवाद सुनाया, निस्संदेह दक्षिणी अफरीकी के यूरोपियन इस्लाम से नहीं डरते हैं, बल्कि वास्तव में वे इस बात से डरते है कि अगर अफरीका के आदिवासियों ने इस्लाम कबूल कर लिया तो वे श्वेत जातियों से बराबरी का अधिकार मॉगने लगेंगे। आप उनको डरने दीजिए। अगर भार्इ-भार्इ बनना पाप हैं, तो यह पाप होने दीजिए। अगर वे इस बात से परेशान हैं कि उनका नस्ली बड़प्पन, कायम न रह सकेगा तो उनकाडरना उचित हैं, क्योकि मैने देखा हैं अगर एक जूलों र्इसार्इ हो जाता है तो वह फिर भी सफेद रंग के र्इसाइयों के बराबर नही हो सकता। किन्तु जैसे ही वह इस्लाम ग्रहण करता हैं, बिल्कुल उसी वक्त वह उसी प्याले में पानी पीता हैं और उसी प्लेट में खाना खाता हैं, जिसमे कोर्इ और मुसलमान पानी पीता और खाना खाता हैं। तो वास्तविक बात यह है जिससे यूरोपियन कॉप रहे हैं। (जगत महर्षि पृष्ठ 2)
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नारी - उद्धारक: श्रीमति एनीबेसेन्ट अपने लेक्चर में कहती हैं-

‘‘आप जरा हमारे पैग़म्बर का ख्याल कीजिए और उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब केवल उनकी पत्नी ही उन पर र्इमान लार्इ हैं। उसके बाद अत्यन्त निकटतम सम्बन्धी उन पर र्इमान लाते हैं। इस बात से भी मुहम्मद (सल्ल0) के विषय में कुछ-न-कुछ पता चलाता है। एक ऐसे समूह में से अनुयायी प्राप्त कर लेना सहज हैं, जो आपकों नहीं जनता, जो आपकी केवल प्लेटफार्म ही पर देखता हैं। जो आपका केवल लिखा लिखाया भाषण ही सुनता हैं या आपको कुछ सलावों को जवाब देने की हालत में देखता हैं। लेकिन अपनी पत्नी, अपनी बेटी और अपने दामाद और दूसरे निकटवर्ती सम्बन्धियों की नजरों में नबी बनना, वास्तव में नबी बनना हैं और यह एक ऐसी विजय हैं जो हजरत र्इसा (अलैहि0) को भी प्राप्त नहीं हुर्इ।
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धरोहर-रक्षक: ग्रेट टीचर हरबर्ट वॉयल लिखते हैं-

‘‘ हजरत मुहम्मद (सल्ल0) नितान्त गम्भीर, अल्पभाषी और दृढ़  संकल्पी थें। आप जितने सचेष्ट थे उतने ही सहनशील और धैर्यवान भी थें। आप अत्यन्त शुद्ध विचारोंवालों थे। यह कहना कि मुहम्मद (सल्ल0) जादूगर थें, मेरे निकट एम मूर्खतापूर्ण बात हैं।’’


सर्वाधिक प्रामाणिक और सच्चा जीवन-चरित्र


    ‘ अपालोजी फार मुहम्मद एण्ड कुरआन’ का रचयिता जॉन डेविन पोर्ट लिखता हैं-

        मुहम्मद (सल्ल0) की सत्यता और शुद्ध हृदयता का प्रबल प्रमाण यह हैं कि सबसे पहले जो लोग उनपर र्इमान लाए (यानी मुसलमान हुए) वे उनके घरवाले और उनके निकट सम्बन्धी हैं, जो उनके घरेलू जीवन से पूर्णतया परिचित थे। अगर उनमें सच्चार्इ और सत्यता न होती, तो वे जरूर आपत्तियों और विरोधों का तूफान खड़ा कर देते। इसमें सन्देह नही कि जगत के समस्त लेखकों और विजेताओं मे ंएक भी ऐसा नही जिसका जीवन-चरित्र उनसे अधिक विस्तृत और सच्चा हों’’

सुख और कल्याण का स्रोत व्यक्तित्व

याक्र्स डाड ने अपनी मुस्तक ‘ मुहम्मद, बुद्ध एण्ड मसीह’ में लिखा हैं-

    ‘‘ हजरत मुहम्मद (सल्ल0) का चरित्र अति उत्तम था। आपके निकट सांसारिक बड़ार्इ कोर्इ चीज़ न थी। आपकी सेवा में हर व्यक्ति स्थान पा सकता था। हम अत्यन्त सत्यता के साथ कहना चाहते हैं कि आपका व्यक्तित्व सुख और कल्याण का स्रोत था। आप अद्वितीय सुशील और नितान्न सुहृदय मनुष्य थें। आपका सहनशील और संयमी जीवन मन को बहुत ही लुभानेवाला हैं और हमारे दिल में आपके महान व्यक्तित्व के लिए विशेष श्रद्धा मौजूद हैं।’’
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नितान्त गम्भीर व्यक्तित्व: प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्धान डाक्टर गेस्टोव लीबान अपनी पुस्तक ‘इस्लाम की स

‘‘ हजरत मुहम्मद (सल्ल0) नितान्त गम्भीर, अल्पभाषी और दृढ़  संकल्पी थें। आप जितने सचेष्ट थे उतने ही सहनशील और धैर्यवान भी थें। आप अत्यन्त शुद्ध विचारोंवालों थे। यह कहना कि मुहम्मद (सल्ल0) जादूगर थें, मेरे निकट एम मूर्खतापूर्ण बात हैं।’’


सर्वाधिक प्रामाणिक और सच्चा जीवन-चरित्र


    ‘ अपालोजी फार मुहम्मद एण्ड कुरआन’ का रचयिता जॉन डेविन पोर्ट लिखता हैं-

        मुहम्मद (सल्ल0) की सत्यता और शुद्ध हृदयता का प्रबल प्रमाण यह हैं कि सबसे पहले जो लोग उनपर र्इमान लाए (यानी मुसलमान हुए) वे उनके घरवाले और उनके निकट सम्बन्धी हैं, जो उनके घरेलू जीवन से पूर्णतया परिचित थे। अगर उनमें सच्चार्इ और सत्यता न होती, तो वे जरूर आपत्तियों और विरोधों का तूफान खड़ा कर देते। इसमें सन्देह नही कि जगत के समस्त लेखकों और विजेताओं मे ंएक भी ऐसा नही जिसका जीवन-चरित्र उनसे अधिक विस्तृत और सच्चा हों’’

सुख और कल्याण का स्रोत व्यक्तित्व

याक्र्स डाड ने अपनी मुस्तक ‘ मुहम्मद, बुद्ध एण्ड मसीह’ में लिखा हैं-

    ‘‘ हजरत मुहम्मद (सल्ल0) का चरित्र अति उत्तम था। आपके निकट सांसारिक बड़ार्इ कोर्इ चीज़ न थी। आपकी सेवा में हर व्यक्ति स्थान पा सकता था। हम अत्यन्त सत्यता के साथ कहना चाहते हैं कि आपका व्यक्तित्व सुख और कल्याण का स्रोत था। आप अद्वितीय सुशील और नितान्न सुहृदय मनुष्य थें। आपका सहनशील और संयमी जीवन मन को बहुत ही लुभानेवाला हैं और हमारे दिल में आपके महान व्यक्तित्व के लिए विशेष श्रद्धा मौजूद हैं।’’
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मानव-जीवन का सर्वोत्तम आदर्श: राजा राधा प्रसाद सिंह, (बी0ए0, एल0एल0बी0)

मानव-जीवन का सर्वोत्तम आदर्श
राजा राधा प्रसाद सिंह, (बी0ए0, एल0एल0बी0) हजरत मुहम्मद साहब के जन्म दिवस की एक सभा के भाषण में कहते हैं-
    ‘‘ विश्व-भूगोल और इतिहासके पृष्ठ, संसार के किसी भाग या कोने का, ऐसा उदाहरण नही पेश कर सकें जिसमें प्रकृति ने हर समाज, हर समूह, हर वंश और हर जाति के चरित्र और स्वभाव के सुधार और बनाव के लिए नबी, अवतार पथप्रदर्शक, हादी, पैगम्बर न भेजे हों।
‘‘ वलिकुल्लि कौमिन हाद’ पवित्र कुरआन की यह आयत इस बात की साक्षी हैं कि प्रकृति ने हर कोने और हर भाग पर चाहे पूरब में हो या दक्षिण में, कोर्इ-न-कोर्इ समाज-सुधारक, देश और समाज की उन्नति और नैतिक विकास के लिए अवश्यक उत्पन्न किया।’’
यदि हम किसी सुधारक, नबी या अवतार के जीवन-चरित्र या जीवन-घटनाओं की पूर्ण खोंज करें तो हमारी दृष्टि के सामने उनके जीवन की समस्त घटनाएॅ और वातावरण नही आ सकते। लेकिन यह विशेषता सदगुणों के स्रोत पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ही को प्राप्त हैं कि आपकी जीवनी के से ही आपके जीवन के संक्षिप्त अध्ययन से ही आपके जीवन का साफ चित्र हमारी ऑखों के सामनें खिंच जाता हैं। अगर इस पवित्र आत्मा के जीवन की यत्र-तत्र घटनाओं पर भी प्रकाश डाला जाए तो इसके लिए भी एक बड़े ग्रन्थ जरूरत होगी। यह संक्षिप्त निबन्ध तो इस बात के लिए किसी तरह भी पर्याप्त नही हो सकता कि इस साकार ज्योति तथा सच्चार्इ और स्वच्छता की मूर्ति के आदर्शपूर्ण आचार-व्यवहार- जिसके सम्बन्ध में खुदा कुरआन में स्वंय कहता हैंं तुम्हारे लिए हजरत मुहम्मद (सल्ल0) का जीवन सर्वोत्तम आदर्श हैं-पेश कर दिए जाएॅ। इस समय नमूने के तौर पर कुछ प्रमुख और स्पष्ट घटनाएॅ जिनसे आपकी सम्मानित (श्रोतागण की) रूह को ताजगी पहूॅचने की प्रबल आशा हैं, प्रस्तुत करता हूॅ।
इसके बाद सिन्हा साहब ‘पैगम्बर साहब की सच्चरित्रता की महानता ‘समता और सत्यता’ ‘धैर्य’ और दृढ़ता’ ‘दया और बंधुत्व’ शीर्षकों के अन्तर्गत आप (सल्ल0) की सच्चरित्रता के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने के बाद ‘बन्धुत्व और समता का अद्वितीय मुकुटधारी’ शीर्षक से कहते हैं-
‘‘ वास्तव में आप (सल्ल0) ही की शिक्षा एक ऐसी शिक्षा हैं, जिसने जात-पात के बन्धन को उचित नही ठहराया। आपका नियम है कि समस्त मानव-जाति चाहे गोरे हों या काले, धनवान हों या निर्धन, प्रबल हों या दुर्बल, सभ्य समाज से सम्बन्ध रखनेवाले हों या असभ्य, या कोर्इ और हो सब बराबर हैं और सब समान अधिकार रखते हैं। आपकी शिक्षा के अनुसार र्इश्वर की दृष्टि मे साधारण मनुष्य और बड़े-से-बड़ा सम्राट दोनो एक हैसियत के मालिक हैं, क्योकि उसके दरबार में व्यक्तित्व की पूछ नही होती, वहॉ तो अच्छे कर्म की जरूरत हैं, इसी पर सारी सभ्यता और बड़प्पन निर्भर हैं।’’
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मिस्टर बी0एन0 साहनी एडीटर ‘हिन्दुस्तान टाइम्ज़’ दिल्ली

‘‘ अपने-अपने युग में मुहम्मद (सल्ल0)  र्इसा और बुद्ध  जैसे महात्माओं के साथ उसी प्रकार का घृणापूर्ण और तिरस्कारयुक्त व्यवहार किया गया, जो अघर्मियों (यानी झूठे घर्म के उपासकों) की ओर से सच्चे धर्म के प्रवर्तकों के लिए खास हैं और खास हैं और हजरत मुहम्मद (सल्ल0) को इसी प्रकार के घर का एक महान अग्रण्य नेता समझकर ही मैं इस बात पर मजबूर हुआ हूॅ कि उनका सम्मान करूॅ ।
यह आप ही काम था कि अद्वितीय साहस और दृढ़ता के साथ, जिसके कारण आप कर्इ बार मौंत के मुहॅ तक पहॅुच गए, आपने उस काल के प्रचलित धर्म-सिद्वान्तों को तोड़ा और एक ऐसे धर्म की नीवं रखी, जिसने उस काल की सभ्यता में भी महत्वपूर्ण क्रान्ति उत्पन्न कर दी और आगे चलकर इस दुनिया के विभिन्न भागों में बसने वाले करोड़ो  मनुष्यों के लिए मार्ग प्रदीप का काम दिया।
इस सच्चार्इ से किसी को इनकार नहीं हो सकता कि इस्लाम के प्रवर्तक का व्यक्तित्व जितना पवित्र और उत्तम था, उसमें उतनी ही आकर्षण-शक्ति भी मौजूद थी और आप ऐसे दिल और ऐसे दिमाग के मालिक थें, जिसका उदाहरण आज तक इस दुनिया में बहुत कम पाया जाता हैं। इस पवित्रात्मा पैगम्बर ने सदियों पहले अपने अनुयायियों के लिए जो जीवन-व्यवस्था बनार्इ थी, उसमें दो बाते विशेष रूप् से हर व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर खींच लेजी हैं। यह बात कितनी आश्चर्यजनक हैं कि लोकतन्त्र के इस युग में भी हम सामाजिक और बौद्धिक समता के उस उच्च स्तर पर नहीं पहुॅच सके हैं, जिसकी कल्पना इस महामहिम पैगम्बर के मस्तिष्क में सदियों पहले आ चुकी आ चुकी थी और जिस पर दुनिया के मुसनमानों ने एक कौम की हैसियत से अपने दैनिक जीवन में आश्चर्यजनक निष्ठा के साथ अमल किया हैं।
राजनीतिक लोकतन्त्र मे भी बहुत कुछ विशेषताएॅ हैं और यह वास्तविकता हैं कि हर ऐसा राजनीतिक विधान जो जनता को उस राज्य के स्थापित करने में पूर्ण स्वतन्त्रता न दें, जिसके  अन्तर्गत वह जीवन व्यतीत करना चाहती हैं, निस्सन्देह अन्यायपूर्ण और निरंकुश हैं। लेकिन केवल राजनीतिक लोकतन्त्र से काम नही चला करता और लोकतन्त्रात्मक जीवन-प्रणाली की इससे पूर्ति नही होती। लोकतन्त्र का वास्तविक रहस्य जिस चीज में निहित हैं, वह तो यह हैं कि मनुष्य की दृष्टि मे दूसरे मनुष्य की कितनी प्रतिष्ठाा हैं और एक समाज दूसरे समाज के साथ कैसा व्यवहार कर रहा हैं।
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मेरी ऑखें खुल गर्इ: बाबू-मुकुट - धारी प्रसाद (बी0ए0एल0एल0बी0) गया के प्रमुख राष्ट्रीय नेता है।,

बाबू-मुकुट - धारी प्रसाद (बी0ए0एल0एल0बी0) गया के प्रमुख राष्ट्रीय नेता है।, जो स्वाधीनता आन्दोलन में अनेक बार जेल-यात्रा कर चुके हैं और 12 वर्ष तक नगर पािका के अध्यक्ष रह चुके हैं। हजरत मुहम्मद(सल्ल0) के जन्म दिवस की एक सभा के सभापति पद से भाषण करते हुए आपने फरमाया-
        आप लोगों को यह मालूम हो याा न हों, लेकिन सत्य यह हैं कि इस्लाम और मुहम्मद साहब के सम्बन्ध में मेरे विचार पहले उतने अच्छे नही थे जैसा कि आप आज पाते हैं। मेरा दिल उनकी ओर से द्वेष से भंग हुआ था और मुझे मुहम्मद साहब और उनके इस्लाम मे कोर्इ गुण दिखार्इ नही देता था। लकिन जब असयोग आन्दोलन मे जेल गया और वही आपकी जीवनी का अध्ययन किया तो मेरी ऑखें खुल गर्इ और मुझे मुहम्मद साहब के अपार गुणों का कायल हो जाना पड़ा और इसी कारण आज मैने श्ह उच्च पद ग्रहण कर लिया हैं।
अरब देश के इतिहास से स्पष्ट हैं कि मुहम्मद साहब के धर्म-प्रचार से पहले अरब नितान्त मूर्खता, बर्बरता, पथ-भ्रष्टता, मद्यपान और तरह-तरह के कुकर्मो में लिप्त था। लेकिन मुहम्मद साहब की शिक्षा का यह प्रभाव हुआ कि केवल 23 वर्ष के अल्प समय में इस मूर्ख और बर्बर देश की काया पलट गर्इ। आपकी शिक्षाएॅ अगणित हैं। किन्तु उनमें जो विशेष रूप् से मुझे अत्यन्त प्रिय हैं और जो हर आदमी के लिए लाभकारी और व्यवहार-योग्य हैं, बयान करता हूॅ-
मैं सबसे पहले समता को लेता हूॅ। स्वामी हो य दास, धनी हो या निर्धन, गोरा हो या काला इस्लाम ने हर मुसलमान को बराबर का अधिकार दिया हैं। मुहम्मद (सल्ल0) की शिक्षा में पारिवारिक उॅच-नीच के लिए कोर्इ जगह नही हैं, बल्कि नाम और प्रतिष्ठा की कसौटी कर्म और केवल कर्म हैं।
अब विरासत (मृतक-सम्पत्ति) और जकात को लीजिए। मेरी राय में मुहम्मद साहब ने इस विषय के प्रति जो आदेश दिए हैं, उनसे साफ प्रकट हैं कि इस्लाम पॅूजीवाद का विरोधी और धन विभाजन का समर्थक हैं। विरासत-नियम का अर्थ इसके नही हो सकता कि एक आदमी का धन कुछ आदमियों में बंट जाए और उस परिवार का हर प्राणी निर्धनता से सुरक्षित रह सके और साथ ही कोर्इ अकेला धन के घमण्ड से दूसरे आदमियों को अपने सामने हीन न समझें।
जकात (ेकेवल मुसलमानों से लिया जाने वाला धार्मिक कर) को मुहम्मद साहब की शिक्षा में जो प्रधानता प्राप्त हैं, वह दूसरे धर्मो में मौजूद। सम्पत्ति-विभाजन से एक परिवार के लोगों की आर्थिक कठिनाइयॉ दूर हो सकती थी। लेकिन जकात ने पूॅजीवाद के विरोध के साथ एक दशाहीन और निर्धन मुसलमान को निर्धनता के गर्त से निकाला और संसार में मनुष्यों का-सा जीवन बिताने का अवसर प्रदान किया। जैसे मुहम्मद साहब की शिक्षाएॅ महान थीं वैसे ही आप (सल्ल0) का आचरण भी रअति उच्च-कोटि का था। इसका एक छोटा-सा उदाहरण यह हैं कि मुहम्मद साहब की एक सुपुत्री को, जबकि वे गर्भवती थीं, इस्लाम के एक विरोधी न भाले से जख्मी कर दिया और उसके  कारण उनका गर्भपात हो गया और इस दुख से वे जीपित न रह सकीं । किन्तु फिर जब वही विरोधी किसी अवसर पर अपराधी के रूप् में मुहम्मद साबह के सम्मुख लाया गया तो आपने अपनी असीम दयालुता, धैर्य और क्षमा-भाव से काम लेकर ऐसे अपराधी को कोर्इ दण्ड दिए बिना छोड़ दिया।
सज्जनों!कहा जाता हैं कि ‘इस्लाम तलवार के बल में फैला’।
आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि मेरा भी यही विचार था। लेकिन वह कौन-सी तलवार थी? क्या वह लोहे की तलवार थीं? नहीं, वह मुहम्मद साहब की यह अमूल्य सच्चरित्रता, क्षमा-भाव, शुद्ध आचार-व्यवहार, उनके महान् गुण और उनकी कियामत तक न मिटने वाली आदर्श-शिक्षाओं की चमकती-दमकती तलवार थी, जिसने गर्दने काटने की जगह दिलों को एक धागे में जोड़ दिया। इस्लाम की लोकप्रियता और प्रसिद्धि के यही कारण है, अन्यथा कोर्इ चीज जो बलपूर्वक और अत्याचार के आधार पर कायम की जाती हैं स्थार्इ और फलदायक नहीं होती। मुहम्मद साहब की अति उत्तम शिक्षा और सदाचार ही के ये चमत्कार हैं कि इस्लाम अब तक कायम हैं और मुझे यह स्वीकार करने में कुछ भी संकोच नही हैं कि मुहम्मद साहब का धर्म ही अपनी शिक्षाओं के आधार पर आज संसार में सबसे अधिक लोकप्रियता धर्म हैं। (जगत महर्षि पृष्ठ 62-68)
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संसार के लिए दया-निधि: मिस्टर देवदास गॉधी , जो दिवंगत महात्मा गॉधी के कनिष्ठ पुत्र थें, अपने एक निब

संसार के लिए दया-निधि

मिस्टर देवदास गॉधी , जो दिवंगत महात्मा गॉधी के कनिष्ठ पुत्र थें, अपने एक निबन्ध में लिखते हैं-
           ‘‘ एक महान शक्तिशाली सूर्य के समान र्इश्वर दूत हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने अरब की मरूभूमि को उस समय रौशन किया, जब मानव-संसार घोर अन्धकार मे डूबा हुआ था और जब आप इस दुनिया से विदा हुए तो आप अपने सब काम पूर्ण कर चुके थें। वे पवित्रतम  काम जिससें दुनिया को स्थायी लाभ पहुॅचने वाला था।

दुनिया केसच्चे पथ-प्रदर्शक बहुत थोड़े हुए हैं उनके युगों में एक-दूसरे से बहुत अन्तर रहा हैं। वेलोग जिन्होने मुहम्मद (सल्ल0) के जीवन-चरित्र का अध्ययन उसी श्रद्धा के साथ किया हैं, जिसके वे अधिकारी हैं, वे इस बात को मानने पर बाध्य
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सीधी-सच्ची राह दिखानेवाले: अविभाजित पंजाब के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता और विद्धान डाक्टर सत्यपाल

सीधी-सच्ची राह दिखानेवाले
अविभाजित पंजाब के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता और विद्धान डाक्टर सत्यपाल लिखते हैं-
        ‘‘ जिस समय हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) पैदा हुए, सारे अरब में मूर्तिपूजा जोरो पर थी। हर और शिर्क (बहुदेव-पूजा) का दौरा-दौरा था। र्इश्वर का विश्वास लुप्त हो रहा था। अत्याचार, दमन और बलातु हिंसा के समय तो अवश्य र्इश्वर को पूज लिया जाता था, लेकिन उसकी नित्य और वास्तविक उपासना से लोग कोसो दूर थे। कुसंस्कारों और धार्मिक पाखण्डों का जोर था। लेकिन र्इश्वरीय आज्ञापालन का नाम न था। ऐसे समय में आपने इस ज्ञान से र्इश्वर के एकत्व की घोषणा की कि उसकी गूॅज से अरब में एक नर्इ दुनिया आबाद हो गर्इ। हजरत मुहम्मद (सल्ल0) को लोगों ने तरह-तरह के कष्ट दिए, क्योंकि आप अद्वितीय र्इश्वर का सन्देश सुनाते थे। आपको लोगों ने बहुत परेशान किया, क्योकि आप लोगो का एक पूज्य की ओर आकर्षित करते थे। लेकिन ऐसे महान और तेजस्वी व्यक्ति इन कठिनार्इयों से कब भयभीत होते हैं, जो अपने आपको र्इश्वर की गोद मे पाते हैं। वे दुनिया वालों को कब ध्यान में लाते हैं दुनिया से वे कब डरते हैं, जिनके सर पर दुनिया के मालिक का हाथ हैं? दुनिया उन्हे खरीद नही सकती, न वे अपमान से घबराते हैं, न प्रशंसा से प्रभावित होते हैं। उनकी दृष्टि में इन चीजों को कोर्इ मूल्य नही होता। साधारण लोग यह ख्याल करते हैं कि हजरत मुहम्मद साहब एक विशेष सम्प्रदाय, एक विशेष जाति या किसी विशेष देश के पथ-प्रदर्शक हैं। (हालाकि सत्य यह हैं कि आप सम्पूर्ण जगत की मानव-जाति के लिए पथ-प्रदर्शक बनाकर भेजे गए हैं। ) और यही कारण हैं कि विश्व भर में आज करोड़ों मुसलमान दिन में कर्इ बार र्इश्वर के इस पवित्र सन्देशदाता का नाम श्रद्धा और प्रेम से लेते हैं। लेकिन उनसे कहीं बढ़कर वे लोग हजरत के प्रशंसक है जो यद्यपि मेरे समान उनकी घोषणा में अपनी धीमी आवाज शामिल करते हैं और जो दिन-रात हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के इस कारनामें को याद करते हैं कि आपने भूली-भटकी दुनिया को नए सिरे से वास्तविक सत्यमार्ग दिखाया और सत्य निष्ठा का पाठ पढ़ाया ।
हजरत मुहम्मद साहब यदि अपने जीवन में और कुछ न भी कर पाते तो केवल शिर्क (बहुदेववाद) को दूर करना और एकेश्वरवाद की स्थापना ही एक ऐसा कारनामा हैं कि दुनिया मे उन्हें चिरस्थार्इ जीवन का अधिकार प्राप्त होता। लेकिन हजरत ने संसार निवासियों के लिए वर्तमान और भविष्य की चेष्टा और प्रगति करने के लिए भी पथप्रदर्शक दीप प्रज्वलित किया है। हजरत का आत्म-त्याग, उनका आत्म-संयम और उनका आत्म-विश्वास हम सबके लिए मार्ग-दर्शन का काम देते हैं। हजरत मुहम्मद साहब ने संसार में समता के सिद्धान्त को जन्म देकर उसे कार्यान्वित करके दिखा दिया। आपने बताया कि र्इश्वर के निकट सारे मनुष्यों का दर्जा एक हैं। उसके दरबार में केवल धन और बुद्धि  को ही प्रधानता नही दी जाती जो भी उसका हो गया । निर्घन हो या धनी, राजा हो या प्रजा, जिसने र्इश्वरीय आज्ञापालन को अपना जीवन-लक्ष्य बना लिया उसने सर्वोच्च पद प्राप्त कर लिया। र्इश-उपासना के द्वार सबके लिए खुले हैं, उॅचे-नीच का भेद अनुचित हैं, यही नही अन्य सांसारिक मामलों में भी हजरत ने परस्पर समानतापूर्ण व्यवहार का आदेश दिया हैं।’’(’तर्जुमान-बनारस, जुलार्इ, 1930 र्इ0)

कि वर्द्स
इस्लामी कैलेंडर हिजरी संवत किसके द्वारा चलाया गया हिजरी संवत कब शुरू हुआ इस्लामी कैलेंडर 2018 हिजरी संवत की शुरुआत कब हुई मुस्लिम त्योहार हिजरी संवत की स्थापना कब हुई
इस्लाम में गाय इस्लाम में निकाह इस्लाम में महिलाओं के अधिकार इस्लाम में हमबिस्तरी का तरीका इस्लाम में क्या क्या हराम है कुरान में क्या लिखा है इस्लाम क्या है



इस्लाम के बारे में भारतीय ग़ैर-मुस्लिम विद्वानों के विचार 
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